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एउमचरित
लोकमूलक ?- इसका सही-सही विचार किये बिना-आगे चलना कठिन ही नहीं असम्भव है। वैसे छविने स्वयं अपने प्रस्तावनाबाले रुपको कहा है कि इसमें कहीं-कहीं दुष्कर शब्दरूपी चट्टानें हैं 1 चट्टानें नदीकी धाराओं में दिख जाती है और वे उसे काटकर निकल जाती हैं, परन्तु स्वयम्भूके सघन दुष्कर शब्दरूपी शिलातलोकी कठिनाई यह है कि अर्थ की धाराएं उन्हीं में समाहित हैं । उसका भेदन किये बिना अर्थ तक पहुँचना कठिन है । स्वयम्भूजैसे क्लासिक झविके अनुवादके लिए जो समक्ष, अभ्यास और अनुभन्न आज मुझे प्राप्त है, वह आजसे बीस साल पहले नहीं था। दूसरे स्वयम्भू-जैसे जीवनसिंह कवियोंकी रचनाओंका निर्दोष और सम्पूर्ण अनुबाद एक बारमें सम्भव नहीं। इधर बहुत-से अपभ्रंश काश्य प्रकाशित हुए हैं, और उसके विविध अंगोंपर शोध प्रबन्ध भी देखने में माये हैं, जो इस बातके प्रमाण हैं कि हिन्दी जगत् अपभ्रंश-भाषा और साहित्यके प्रति आकृष्ट हो रहा है, यद्यपि अपभ्रंशमें शोधके निर्देशक सिद्धान्त दिशाएँ अभी भी अनिश्चित हैं। इसका एक कारण अपभ्रंशके प्रमुख काव्योंगा हिन्दी में प्रामाणिक अनुवाद न होना है। स्व, डॉ, हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित अपभ्रंश कान्य इसके अपवाद है। उन्होंने मूलपाठक समानान्तर हिन्दो अनुवाद भी दिया है । भारतीय ज्ञानपीठ इस दिशामें विशेष प्रयत्नशील है; उमाका सह परिणाम है कि 'पउमचरित' हिन्दी जगत में लोकप्रिय हो सका। भारतके विभिन्न विश्वविद्यालयों में 'उसके अंश पाध्यक्रम में निर्धारित होनेसे उसकी बिक्री बढ़ी है। 'पउमचरिउ'के प्रथम काण्डको दुवारा छापनेकी सम्भावनाको देखते हुए बा. भाई लखमीचन्दनी ने मुझे लिखा कि "मैं सारे अनुवादको अच्छी तरह देख लें जिससे उसमें अशुद्धियां न रह जायें।" इस दृष्टि से जब मैंने अनुवादको देखा तो लगा कि पुराने अनुवादमें सुधार करने के बजाय उसकी पुनर्रचना ही ठीक है। ऐसा करने में ही कनिके साथ न्याय हो सकता है । मैं अब अपभ्रंश काव्यके प्रेमी पाठकोंके लिए यह विश्वास दिला सकता हूँ कि प्रस्तुत अनुवादको शुद्ध और प्रामाणिक बनाने में मैंने कोई कसर नहीं उठा रखी। फिर भी अपभ्रंश काव्यके मूल्यांकनमें