Book Title: Panchastikay Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat ParishadPage 10
________________ ६ षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन समयी कानुवाद- यहाँ ( इस गाथा में ) "जिनों को नमस्कार हो" ऐसा कहकर शास्त्रके आदि में जिनको भावनमस्काररूप असाधारण मंगल कहा है। "जो अनादि प्रवाह से प्रवर्तते [ चले आरहे ] हये अनादि प्रवाह से ही प्रवर्तमान ( चले आ रहे ! सौ इन्द्रों से वन्दित हैं- ऐसा कहकर सदैव देवाधिदेवपने के कारण वे ही [ जिनदेव ही ] असाधारण नमस्कार के योग्य हैं- ऐसा कहा। जिनकी वाणी अर्थात् दिव्यध्वनि तीन लोक को ऊर्ध्व अधो-मध्य लोकवर्ती समस्त जीवसमूहको विशुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि का उपाय कहनेवाली होने से हितकर है, परमार्थरसिक जनों के मनको हरनेवाली होने से मधुर है और समस्त शंकादि दोषों के स्थान दूर कर देने से विशद [ निर्मल, स्पष्ट ] है" – ऐसा कहकर [ जिनदेव ] समस्त वस्तुके यथार्थस्वरूप के उपदेशक होने से विचारवंत बुद्धिमान पुरुषोंके बहुमानके योग्य हैं [ अर्थात् जिनका उपदेश विचारवंत बुद्धिमान पुरुषों को बहुमानपूर्वक विचारना चाहिये ऐसे हैं ] ऐसा कहा । अनन्त - क्षेत्र से अंत रहित और काल से अंत रहित परमचैतन्यशक्तिके विलासस्वरूप गुण जिनके वर्तते हैं ऐसा कहकर [ जिनों को ] परम अद्भुत ज्ञानातिशय प्रगट होने के कारण ज्ञानातिशय को प्राप्त योगीन्द्रों से भी बंध हैं ऐसा कहा । 'भव अर्थात् संसार पर जिन्होंने विजय प्राप्त की है" ऐसा कहकर कृतकृत्यपना प्रगट हो जाने से वे ही ( जिन ही ) अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत हैं, ऐसा उपदेश दिया ऐसा सर्व पदों का तात्पर्य है । तात्पर्यवृत्तिः - अथ प्रथमत इन्द्रशतवन्दितेभ्य इत्यादिना जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्यादौं मंगलं कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति, " णमो जिणाण' मित्यादिपदखण्डनरूपेण व्याख्यानं क्रियते, णमो जिणाणं नमः नमस्कारोऽस्तु । केभ्यः ? जिनेभ्यः । कथंभूतेभ्यः ? • इंदसयवंदियाणं- इन्द्रशतवन्दितेभ्यः । पुनरपि कथंभूतेभ्यः ? तिहुवणहिदमहुरबिसदवक्काणंत्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः । पुनरपि किं विशिष्टेभ्यः । अंतातीदगुणाणं- अन्तातीतगुणेभ्यः । पुनरपि किं विशिष्टेभ्यः ? जिदभवाणं- जितभवेभ्यः इति क्रियाकारकसंबन्धः । इन्द्रशतवन्दितेभ्यः त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः । “पदयोर्विवक्षितः संधिर्न समासान्तरगतयो" रिति परिभाषासूत्रबलेन विवक्षितस्य संधिर्भवतीति वचनात्प्राथमिक शिष्यप्रतिसुखबोधार्थमत्र भन्थे संधेर्नियमो नास्तीति सर्वत्र ज्ञातव्यं । एवं विशेषणचतुष्टययुक्तेभ्यो जिनेभ्यो नमः इत्यनेन मंगलार्थमनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारो स्त्विति संग्रहवाक्यं । अथैव कथ्यते - इन्द्रशतैर्वन्दिता इन्द्रशतवन्दितास्तेभ्य इत्यनेन पूजातिशयप्रतिपादनार्थं । किमुक्तं भवति — त एवेन्द्रशतनमस्कारार्हा नान्ये ? तेषां देवासुरादियुद्धदर्शनात् । त्रिभुव नाय शुद्धात्मस्वरूपप्राप्त्युपायप्रतिपादकत्वाद्धितं वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसहजापूर्वपरमा नन्दरूपपारमार्थिकसुखरसास्वादपरमसमरसीभावरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं चलितप्रतिपत्तिगच्छत्तृणस्पर्शशुक्तिकारजतविज्ञानरूपसंशयविमोहविभ्रमरहितत्वेन शुद्धजीवास्तिकायादिसप्ततत्त्वनवपदार्थPage Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 421