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पंचास्तिकाय प्राभृत अथ सूत्रावतार:अथात्र 'नमो जिनेभ्यः' इत्यनेन जिनभावनमस्काररूपमसाधारणं शास्त्रस्यादौ मङ्गलमुपात्तम् ।
इंदसद-वंदियाणं तिहुअण-हिद-मधुर-विसद-वक्काणं । अंतातीद-गुणाणं णमो जिणाणं जिद- भवाणं ।।१।।
इन्द्रशतवन्दितेभ्यस्त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः ।
अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः ।।१।। अनादिना संतानेन प्रवर्तमाना अनादिनैव संतानेन प्रवर्त्तमानैरिन्द्राणां शतैर्वन्दिता ये इत्यनेन सर्वदैव देवाधिदेवत्वात्तेषामेवासाधारणनमस्कारार्हत्वमुक्तम् । त्रिभुवनमूर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव जीवलोकस्तस्मै निाबाधविशुद्धात्मतत्त्वोपलम्भोपायाभिधायित्वाद्धितं, परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं, निरस्तसमस्तशंकादिदोषास्पदत्वाद्विशदं वाक्यं दिव्यो ध्वनिर्येषामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योपदेशित्वात् प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम् । अन्तमतीत: क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु परमाद्भुतज्ञानातिशयप्रकाशनादवाप्तज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्द्यत्वमुदितम् । जितो भव आजबंजवो यैरित्यनेन तु कृतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरणमित्युपदिष्टम् । इति सर्वपदानां तात्पर्यम् ।।१।। ___ अब इन आठ अंतर अधिकारोंमें से पहले ही सात गाथाओंसे समय शब्दके अर्थकी पीठिका कहते हैं । इन सात गाथाओं से दो गाथाओंमें इष्ट व मान्य व अधिकारप्राप्त देवता को नमस्काररूप मंगलाचरण है। फिर तीन गाथाओंसे पंचास्तिकायका संक्षेप व्याख्यान है। फिर एक माथासे काल सहित पंचास्तिकायोंको द्रव्यसंज्ञा है। फिर एक गाथासे संकर व्यतिकर दोषका त्याग है। इस तरह समय शब्दार्थकी पीठिकामें तीन स्थलके द्वारा समुदायपातनिका कही है।
गाथा-१ ___ अन्वयार्थ—( इन्द्रशतवन्दितेभ्यः ) जो सौ इन्द्रों से वन्दित है, ( त्रिभुवन-हितमधुरविशदवाक्यभ्यः ) तीन लोक को हितकर, मधुकर एवं विशद ( निर्मल, स्पष्ट ) जिनको वाणी है. ( अन्तातीतगुणेभ्यः ) अन्त से अतीत ( रहित ) अनन्त गुण जिन में है और ( जितभवेभ्यः । उिन्होंने भव ( संसार ) पर विजय प्राप्त की है, ऐसे ( जिनेभ्यः ) जिनों को ( नमः ) नमस्कार हो।
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