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उदाहरणार्थ – इन्द्रवाचक शब्दों का निर्वाचन संयुक्त निकाय में इस प्रकार किया गया है
चूंकि पूर्व मनुष्यभव में उसका नाम मघ था, अत: वर्तमान ( शक्र ) भव में उसे मघवा कहा जाता है। उसने पुरों-नगरों में दान दिया था ( पुरे दानमदासित्) इसीलिए उसे पुरिंदद ( पुरंदर का तद्भव ) कहा जाता है । -सत्कारपूर्वक दान देने से वह सक्क कहलाता है । आवसथों का दान दिया था इसीलिए वासव कहा गया है । एक मुहूर्त्त में सहस्र अर्थों का चिंतन करता था, अत: सहस्सक्ख कहा गया ।
अब हम इन्द्र वाचक शब्दों के निर्वचन प्राकृत साहित्य के आधार पर दे रहे हैं -- महामेघ जिसके वशवर्ती हैं, वह मघवा है । जो असुरों के पुरों/ नगरों का विदारण करता है, वह पुरंदर है । जो शक्तिसंपन्न है, वह शक्र है । जो पाक नामक शत्रु को शासित करता है, वह पाकशासन है । जिसके हजार आंखें अर्थात् पांच सौ मंत्री हैं, वह सहस्राक्ष है ।
उपर्युक्त निरुक्तों पर विचार करने से यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि दोनों ही परंपराएं लौकिक मान्यताओं का प्रतिनिधित्व कर रही हैं ।
पालि साहित्य में निर्वचन के आधार पर कुछ शब्दों के अर्थों में प्रचलित अर्थों से सर्वथा विपरीत अर्थों का प्रतिपादन किया गया है। ( उदाहरणार्थ - अरसरूप, णिब्भोग, अकिरियवाद, उच्छेदवाद, जेगुच्छी, वेनयिक, तपस्सी, अपगब्भ शब्दों को, जो निदार्थक थे, प्रशस्त अर्थ में परिणत किया गया । अरसरूप का अर्थ रूखा सूखा है, परन्तु उसका प्रशस्थ अर्थ रूप, रस के प्रति अनासक्त भाव के रूप में किया गया है। इसी प्रकार 'णिब्भोग' का अर्थ सत्त्वहीन व्यक्ति था । उसे बदलकर सभी प्रकार के भोगों में अनासक्त — इसे ग्रहण किया गया है । इसी प्रकार अन्य शब्दों के निन्दार्थक अर्थों को प्रशंसित अर्थ में परिवर्तित किया गया है । इस प्रकार के प्रयोग कहींकहीं प्रस्तुत ग्रंथ में भी देखे जा सकते हैं - यथा— उन्मार्ग । 'उम्मग्गणं उम्मग्गो ( प ४७ ) । जो उत् / ऊंचा मार्ग है वह उन्मार्ग / प्रशस्त मार्ग है । जैन शास्त्रकारों ने निरुक्तों के माध्यम से विशेष विशेष शब्दों का निरुक्त कर निर्वचन विद्या की जो सेवा की है, उसका एक स्पष्ट रूप प्रस्तुत निरुक्त-कोश से हमारे सामने उभर आता है । इस कोश के निर्माण की योजना आचार्यश्री व युवाचार्यश्री द्वारा की गई, जिसको साध्वी द्वय ने मूर्तरूप
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