Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika Author(s): Sushilsuri Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir View full book textPage 7
________________ "अनेकधर्मकं वस्त्वनवधारणपूर्वकमेकेन नित्यत्वाद्यन्यतमेन धर्मेण प्रतिपाद्य स्वबुद्धि नीयते-प्राप्यते येनाभिप्रायविशेषेण स ज्ञातुरभिप्रायविशेषो नयः ।" अर्थात् अनेक धर्मवंत वस्तुका अनवधारणपूर्वक नित्यत्वादि अनंतधर्मों में से किसी एक भी धर्म द्वारा प्रतिपादन कर जो अभिप्राय विशेषपूर्वक इस वस्तु को अपनी उतारते हैं वह ज्ञाता का अभिप्राय विशेष 'नय' है । (३) नयचक्रसार में नय के विषय में कहा है कि "अनन्तधर्मात्मके वस्तुन्येकधर्मोन्नयनं ज्ञानं नयः ।" अर्थात् अनंतधर्मात्मक वस्तु में एक धर्म का मुख्यपणे ग्रहण करना वह 'नय' है।। (४) न्यायावतार की वृत्ति में नय की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि "अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु स्वाभिप्रेतैकधर्मविशिष्टं नयति-प्रापयति संवेदनमारोहयतीति नयः ।" अर्थात् अनंतधर्मों से विशिष्ट वस्तु को अपने अभिमत ऐसा एक धर्म से युक्त जो कहते हैं वह 'नय' है । (५) प्रमाणनयतत्त्वालंकार में भी नय के लक्षण के सम्बन्ध में कहा है कि - "नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यां शस्तदितरांशीदासीन्यतः स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः ।" - छह -Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 110