Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika Author(s): Sushilsuri Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir View full book textPage 5
________________ ' प्रस्तावना सारे जगत् में और भारत के समस्त दर्शनों में सर्वज्ञ प्रभु श्रीतीर्थंकर भगवन्त भाषित जैनदर्शन एक अलौकिकअद्वितीय और अनुपम दर्शन है। उसमें स्याद्वाद, नयवाद, कर्मवाद एवं आत्मवाद आदि अनेक वादों का यथार्थ निरूपण है । अनेक वादों में से नयवाद जैनदर्शन की एक महत्त्वपूर्ण देन है । जैनदर्शन विश्व के प्रत्येक पदार्थ का निरूपण 'नय' को दृष्टि में रखकर ही करता है जिसके समर्थन में विशेषावश्यकभाष्य में कहा है कि"नत्थि नएहि विहुरणं, सुत्त अत्थो य जिरणमये किंचि ।" [विशेषावश्यकभाष्य, २२७७] अर्थात् 'जैनदर्शन में ऐसा कोई भी सूत्र और अर्थ नहीं है, जो नय से रहित हो।' इस दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। "अनन्तधर्मात्मकं वस्तु" ऐसा स्याद्वादमंजरी ग्रन्थ में भी कहा है । कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने 'अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिशिका' ग्रन्थ में कहा है कि - चार -Page Navigation
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