Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ आय उपोद्यात ] आकाओं की चर्या " मुनियों के लिए जो मुलगुण और समाचार का वर्णन किया है वही सब मूलगुण और समाचारfafa आर्यिकाओं के लिए भी है । विशेष यह है कि वृक्षमूलयोग, आतापनयोग आदि का आर्थिकाओं के लिए निषेध है ।"" अन्यत्र भी कहा है "जिस प्रकार यह समाचार नीति मुनियों के लिए बतलाई है उसी प्रकार लज्जादि - गुणों से विभूषित आर्यिकाओं को भी इन्हीं समस्त समाचार नीतियों का पालन करना चाहिए ।"2 आर्यिकाएँ वसतिका में परस्पर में एक-दूसरे के अनुकूल रहती हैं । निर्विकार वस्त्र-वेश को धारण करती हुईं दीक्षा के अनुरूप आचरण करती हैं। रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन बनाना, वस्त्र सीना आदि गृहस्थोचित कार्य नहीं करती हैं। इनका स्थान साधुओं के निवास से दूर तथा गृहस्थों के स्थान सेन अतिदूर न अतिपास रहता है। वहीं पर मलमूत्रादि विसर्जन हेतु एकान्त प्रदेश रहता है। ऐसे स्थान में दो, तीन या तीस चालीस आदि तक आर्यिकाएँ निवास करती हैं। ये गृहस्थों के घर आहार के अतिरिक्त अन्य समय नहीं जाती हैं । कदाचित् सल्लेखना आदि विशेष कार्य यदि आ जावे तब गणिनी की आज्ञा से दो-एक आर्थि काओं के साथ जाती हैं । इनके पास दो साड़ी रहती हैं किन्तु तीसरा वस्त्र नहीं रख सकती हैं, फिर भी ये लंगोटी मात्र धारी ऐलक से अधिक पूज्य हैं क्योंकि इनके उपचार से महाव्रत माने गये हैं, किन्तु ऐलक के अणुव्रत ही हैं। यथा - "ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोट में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं हैं । किन्तु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार महाव्रती हैं।"" एक साड़ी पहनना और बैठकर आहार करना इन दो चर्याओं में ही मुनियों से इनमें अन्तर है । यहाँ मूलाचार में एकलविहारी मुनि का जो लक्षण किया है, 'भावसंग्रह' ग्रन्थ में आचार्य देवसेन ने जिनकल्पी मुनि का वैसा ही लक्षण किया है । यथा "जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के जिनकल्प और स्थविर-कल्प ऐसे दो भेद कहे हैं । " Jain Education International [2] १. एसो अज्जापि य सामाचारो जहाक्खिओ पुव्वं । सव्वहि अहोरत्ते विभासिदव्त्रो जधाजोग्गं ॥। १८७ ।। २. लज्जाविनयवैराग्य सदाचारविभूषिते । आर्याव्राते समाचारः संयतेष्विह किन्त्विह ॥८१॥ आचारसार, पृ० ४२ ३. कौपीनेऽपि समुच्छंत्वात् नार्हत्यार्यो महाव्रतम् । अपि भाक्तममूर्च्छत्वात् साटिकेऽप्याथिकार्हति ॥ सागरधर्मामृत, पृ० ५१८ ४. दुविहो जिणेहि कहिओ जिणकप्पो तह य थविरकप्पो य । सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स ।। १६ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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