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आच उपोद्घात]
११. शील-गणाधिकार-इसमें शील के१८ हजार भेदों का विस्तार से निरूपण है तथा ८४ लाख उत्तरगुणों का भी कथन है।
१२. पर्याप्त्यधिकार-इस अधिकार में जीव की छह पर्याप्तियों को बताकर संसारी जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है, क्योंकि जीवों के नाना भेदों को जानकर ही उनकी रक्षा की जा सकती है। अनन्तर कर्म-प्रकृतियों के क्षय का विधान है, यह इसलिए कि 'मलाचार' ग्रन्थ के पढ़ने का फल मलगुणों को ग्रहण करके अनेक उत्तरगुणों को भी प्राप्त करना है। पूनः तपश्चरण और ध्यान विशेष के द्वारा कर्मों को नष्ट कर देना ही इसके स्वाध्याय का फल दिखलाया गया है।
इस ग्रन्थ में बहुत से विशेष जानने योग्य विषय हैं जिनका संकेत पूर्वाधं की प्रस्तावना में मैंने किया है। एक और महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि धवला पुस्तक नं. १३ में दसवें गणस्थान तक धर्मध्यान माना है। यथा
"असंजदसम्मादिदि-संजदासजद-पमत्तसंजद-अपमत्तसंजद- अपुटवसंजद-अणियट्टिसंजद-सुहमसांपरायखवगोवसामएस धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदिति जिणोवएसादो।'
लेकिन धवलाटीकाकार आचार्य वीरसेन स्वामी से पूर्व इस मूलाचार ग्रन्थ के कर्ता श्री वट्टके र स्वामी ने ग्यारहवें गुणस्थान से शुक्लध्यान माना है । यथा
उपसंतो छ पुहत्त झावि झाणं विवक्क-वीचार।
खीणकसाओ झायदि एयत्तविवषकवीचारं ॥ ४०४॥ -उपशान्तकषाय मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान को ध्याते हैं, क्षीणकषाय मुनि एकत्ववितर्क-अवीचार नामक ध्यान करते हैं ।
सुहमकिरियं सजोगी झायदि साणं च तदियसुक्कं तु।
जं केवली अजोगी झायदि झाणं समच्छिण्णं ॥ ४०५ ॥ सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्लध्यान सयोगी ध्याते हैं। जो अयोग केवली ध्याते है वह समूच्छिन्नध्यान है। यही बात 'भगवती आराधना' में शिवकोटि आचार्य ने कही है
वाइ अणेयाइ तीहि वि जोगेहि जेण ज्झायति । उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं त्ति त भणिया ॥ १८७४ ।। जेणेगमेव वव्व जोगेणेगेण अण्णवरगेण । खीणकसाओ ज्झायदि तेणेगतं तयं भणियं ॥ १८७७ ।। सुहमम्मि कायजोगे वट्टतो केवली तवियसुक्कं । झायदि णिरूंभिदुं जे सुहुमत्तं कायजोगं पि ॥ १८८१ ॥ ते पुण निरुद्धजोगो सरीरतियणासणं करमाणी।।
संवण्ड अपडिवादी ज्झायदि ज्झाणं चरिमसुक्कं ।। १८८३ ।। इसी प्रकार एकलविहारी मुनि कैसे हों-यह विषय भी इसमें निरूपित है जो आज के लिए महत्त्वपूर्ण है । यथा
१. धवला पुस्तक १३ पृ०७४ ।
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