Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 15
________________ सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि आचार्य ने मूलाचार ग्रन्थ की टीका के प्रारम्भ में भूमिका में कहा है कि यह ग्रन्थ आचारांग के आधार से लिखा गया है और आचारांग समस्त श्रुतस्कंध का आधारभूत 1 यथा प्राद्य उपोद्घात "श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपद सहस्रपरिमाणं मूलगुण- प्रत्याख्याम- संस्तरस्तवाराधन'- समाचार (समाचार) पंचाचार - डिशुद्धि षडावश्यक द्वावशानुप्रेक्षानगार भावना समयसार - शीलगुण प्रस्तार पर्याप्त्याद्यधिकार- निबद्ध महार्थगंभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोत्पन्न केवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषद्रव्य नवपदार्थ जिनवरोपविष्टं द्वाविध तपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारद्धिसमन्वितगणधर देवरचितं, मूलगुणोतरगुणस्वरूप विकल्पोपाय-साधन सहाय- फलनिरूपणप्रवणमाचा रांगमाचार्य-पारम्पर्य प्रवर्तमानमल्पबलमेधायुः शिष्य निमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहतु कामः स्वस्य श्रोतॄणां च प्रारब्धकार्य प्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभ परिणामं विवच्छ्री वट्टकेराचार्यः प्रथमतरं तावन्मू नगुणाधिकारं प्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विका प्रतिज्ञां विधत्त मूलगुणेष्वित्यादि - - जो श्रुतस्कन्ध का आधारभूत है, अगरह हजार पदपरिमाण है, जो मूलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तर, स्तवाराधना, समयाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, छह आवश्यक, बारह अनुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति आदि अधिकार से निबद्ध होने से महान् अर्थों से गम्भीर है, लक्षणव्याकरणशास्त्र से सिद्ध पद, वाक्य और वर्णों से सहित है, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने अशेष गुणों और पर्यायों से खचित छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है, बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव के द्वारा जो रचित है, जो मूलगुणों और उत्तरगुणों के स्वरूप, भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल के निरूपण करने में कुशल है, आचार्य परम्परा से चला आ रहा - ऐसा यह आचारांग नाम का पहला अंग है । उस आचारांग का अल्प शक्ति, अल्प बुद्धि और अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारम्भ किए गए कार्यों के विघ्नों को दूर करने समर्थ शुभ परिणाम की धारणा करते हुए श्रीवट्टकेराचार्य सर्वप्रथम मूलगुण नामक अधिकार का प्रतिपादन करने के लिए 'मूलगुणेसु' इत्यादि रूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं Jain Education International मूलगुणे विसुद्ध वंदिता सव्वसंजदे सिरसा । इहपरलोग हिवस्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि ॥ १ ॥ - मूलगुणों में विशुद्ध सभी संयतों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक के लिए हितकर मूलगुणों (उत्तरगुणों के लिए आधारभूत प्रधान अनुष्ठान ) का मैं वर्णन करूंगा । यह ग्रन्थ १२ अधिकारों में विभाजित है । पूर्वार्ध अर्थात् पहली जिल्द में ७ अधिकार हैं। मूलाचार का यह खण्ड सन् १९८४ में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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