Book Title: Mulachar Uttarardha
Author(s): Vattkeracharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ Jain Education International मोहग्गणा महंतेण दज्झमाणे महाजगे धीया । समणा विसयविरता झायंति अनंतसंसारं ॥ ६७८ ॥ आरंभं च कसायं च ण सहदि तवो तहा लोए । अच्छी लवण समुद्दो य कयारं खलु जहा दिट्ठ ॥७६॥ अकसायं तु चरितं कसायवसिओ असंजदो होदि । उपसमदि जहि काले तक्काले संजदो होदि ॥ ९८४ ॥ वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं । विवाहे रागउप्पत्ती गणो दोसाणमागरो ॥ ६८५ ॥ अत्थस्स जीवियस्स य जिब्भोवत्थाण कारणं जीवो । मरदिय मारावेदिय अनंतसो सव्वकालं तु ॥ ८६ ॥ जिन्भोपत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे । पत्तो अनंततो तो जिन्भोवत्थे जयह दाणि ॥ ६० ॥ दुरंगुलाय जिभा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि । अट्ठलदोसेण जीवो दुक्खं खु पप्पोदि ॥ ६६१ ॥ बीदव्वं णिच्चं कट्ठत्थस्स वि तहित्थिरूवस्स । हवदि हि चित्तक्खोभो पच्चयभावेण जीवस्स ॥९२॥ चिदभरिदघडसरित्यो पुरिसो इत्थो वलंत अग्गिसमा । तो महिलेयं ढुक्का णट्ठा पुरिसा सिवं गया इयरे ॥ ६६३ ॥ बहिणी धूआए मूइ बुड्ढ इत्थीए । बीदव्वं णिच्च इत्थीरूवं णिरावेक्खं ॥ ६६४|| हत्थपादपरिच्छिण्णं कण्णणासवियप्पियं । अविवास सदि णारि दूरिदो परिवज्जए ||६६५ ॥ भावविरदो दु विरदो ण दव्व विरदस्स सुग्गई होई । विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी ॥६७॥ पढमं विउलाहारं विदियं कायसोहणं । तदियं गंधमल्लाइं चउत्थं गीयवाइयं ॥ ६६८ ॥ तह सयणसोधणं पिय इत्थिसंसग्गं वि अत्यसंग्रहणं । पुव्वर दिस रणमिंदिय विसय रदी पणिदरससेवा || E दस विमव्वं भमिणं संसारमहादुहाणमावाहं । रिहर जो महप्पा सो दढ बंभव्वओ होदि ।। १०००॥ भावसमणा हु समणा ण समणाण सुग्गई जम्हा । अहिऊण दुविमुवह भावेण सुसंजदो होह ॥१००४॥ For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 456