Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ (ii) इस संस्करण में सभी विशेषार्थ आगम के सन्दर्भ, ग्रन्यनाम, संस्करण, श्लोक तथा पृष्ठ संख्या सहित वहीं के वहीं दे दिये हैं। इससे स्वाध्याय की धारा खण्डित नहीं होती। (iii) मथुरा संघ के संस्करण में कुल २१ टिप्पण जोड़े गये थे। प्रस्तुत संस्करण में ३६ स्थानों पर 'विशेष' शीर्षक के अन्तर्गत प्रकरण का खुलासा प्रस्तुत किया गया है, अधिकांश प्रकरण नये हैं। ___ संकलित विशेषार्थों में से कतिपय पूर्व प्रकाशित हैं और कतिपय पहली बार प्रखर स्वाध्यायियों की स्वाध्याय-प्रतियों से यहाँ संकलित किये गये हैं। इस संस्करण के पृष्ठ २०५ से २१२ तक का सबसे लम्बा विशेषार्थ (नय विषयक) जैन गजट दिनांक ३१.१२.६४ तथा १४.१.६५ के अंकों से संकलित है। पृष्ठ २९३ का विशेषार्थ जैन गजट के ६.६.६३ के अंक में प्रकाशित है। काललब्धि विषयक (पृ. २६६) विशेषार्थ क्रमबद्धपर्याय समीक्षा' पुस्तक के पृष्ठ १९४ से उद्धृत है। अन्तरायाम अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण होता है, मुहूर्त प्रमाण नहीं (पृ. २२५), यह टिप्पण 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक' के सस्ती ग्रन्थमाला कमेटी के संस्करणों में बराबर छपता ही रहा है। क्षयोपशम लब्धि की परिभाषा जैन सन्देश दिनांक (१७.७.५८ अंक) में प्रकाशित हुई है। इसके अतिरिक्त 'वीतरागवाणी' मासिक के जून १९८८ से फरवरी १९८९ तक के अंकों में मोक्षमार्ग-प्रकाशक के कतिपय स्थल' शीर्षक से प्रकाशित प्रकरणों की समीक्षा को भी यहाँ विशेषार्थ के रूप में संकलित किया गया है। शेष विशेषार्थ दीर्घकालीन व्यक्तिगत व सामूहिक स्वाध्याय के अन्तर्गत उपजी जिज्ञासाओं के परिणाम हैं जो यदाकदा स्वाध्यायियों के बीच साक्षात् चर्चा से या पत्रों के माध्यम से निस्सृत हुए हैं। ये विशेषार्थ उपयुक्त और आवश्यक हैं, पर आगे अन्य विशेषार्थ नहीं लिखे जा सकते, ऐसा सम्पादकों का कोई दावा नहीं है। सम्पादकीय दृष्टि इतनी ही रही है कि स्थापनाएँ खुलासा हों, उन पर आगम के परिप्रेक्ष्य में नयदृष्टि से विचार हो । ग्रन्थान्तरों के मत भी सामने हों। पृष्ठ २ पर सिद्धों के आत्मप्रदेशों के आकार के सम्बन्ध में दो मत उद्धृत हैं। एक मत से उनका आकार 'चरम शरीर नैं किंचित् ऊन पुरुषाकारवत्' है। दूसरे मत से अन्तिम शरीर के दो तिहाई भाग प्रमाण आकार है। 'परमात्म प्रकाश' में एक तीसरा मत भी मिलता है - कारण बिरहिउ सुद्ध जिउ, वड्ढइ खिरए ण जेण। घरम सरीर पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण ॥५४॥ अर्थात् सिद्धों के आत्मप्रदेशों का आकार चरम शरीर प्रमाण होता है। पृष्ठ १५९ पर कहा है – 'सो शुद्ध-अशुद्ध अवस्था पर्याय है। किन्तु सर्वथा ऐसा नहीं है। 'प्रवचनसार' में द्रव्य की अशुद्धता की बात भी कही है। पर्याय अशुद्ध है तो द्रव्य भी अशुद्ध होगा। पृष्ठ १८६ पर लिखा है -"सो एक कारण ते पुण्य बन्ध भी मानै अर संवर भी मानै सो बनै नाहीं।" सर्वथा ऐसा नहीं है क्योंकि एक ही दीपक कालिमा व प्रकाश दोनों का कारण देखा जाता है। श्री

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 337