Book Title: Mokshmarga Prakashak Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh View full book textPage 9
________________ (90) उसकी रचना को प्रस्तुति के योग्य बनाता है। दुर्भाग्य से पण्डित टोडरमलजी को मोक्षमार्ग प्रकाशक का जितना भाग वे लिख सके, उस अपने लेखन के पुनरवलोकन का अथवा उसकी कमियों और खामियों को जाँचने-परखने और सुधारने का अवसर नहीं मिला। यदि वे प्रकरण पूरा कर पाते तो निश्चित ही उसका पुनरवलोकन करते और उसमें आवश्यक सुधार भी करते। यह लेखन का सामान्य नियम है। सर्वश्री पं. नाथूराम प्रेमी, पं. युगलकिशोर मुख्तार, पं. परमानन्द शास्त्री, पं. कैलाशचन्द शास्त्री, पं. राजेन्द्रकुमार और पं. लालबहादुर शास्त्री प्रभृति विद्वानों ने अध्येताओं की इस कठिनाई को समझा और उसके प्रतिकार की आवश्यकता का भली भाँति अनुभव किया। उन सभी विद्वानों के चिन्तन का ही सुफल था कि मथुरा संघ से १९४८ में प्रकाशित लालबहादुरजी शास्त्री वाले संस्करण में ग्रन्थ के प्रश्नचिह्नांकित प्रसंगों को स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थ के अन्त में ४४ पृष्ठों का एक परिशिष्ट जोड़ा गया। इस परिशिष्ट में २०-२२ प्रसंगों पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया। परन्तु ये प्रसंग प्राय: करणानुयोग से ही सम्बन्धित रहे। दूसरी बात यह रही कि धवल ग्रन्थों के अध्ययन का लाभ इन टिप्पणियों में पूरी तरह समाहित नहीं हो पाया। कहीं-कहीं तो ऐसा लगा कि स्पष्टीकरण ने प्रसंग को कुछ और अधिक जटिलता प्रदान कर दी है। प्रस्तुत संस्करण मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ का एक नवीन संस्करण है। इसकी विशेषता यह है कि इसके सम्पादन हेतु हमने टोडरमलजी की ही हस्तलिखित मूल प्रति की फोटोस्टेट कॉपी को प्रामाणिक प्रति माना है। मूल में सर्वत्र पण्डित टोडरमलजी के वाक्यों को एक अक्षर प्रमाण भी परिवर्तन किये बिना ज्यों का त्यों रखा है। मात्र इतनी विशेषता है कि हमने इसमें यथास्थान विशेष (विशेषार्थ ) संकलित कर दिये हैं। ऐसे कुल ३६ विशेषार्थ हैं। अनेक पादटिप्पण भी दिये गये हैं। ये विशेषार्थ या तो उस विवक्षित विषय को स्पष्ट करने, खुलासा करने के लिए संकलित किये गये हैं या फिर ग्रन्थान्तरों का तत्सम्बन्धी मतान्तर दिखाने हेतु या फिर श्रद्धेय लेखक द्वारा सूक्ष्मतम विषय को स्पष्ट न करने से भी विशेषार्थ संकलित किया गया है। इस संस्करण में पं. लालबहादुरजी शास्त्री के टिप्पणवाले प्रसंगों को भी आधार नहीं बनाया गया है क्योंकि इस बीच के दीर्घ अन्तराल में, . धवलादि ग्रन्थों के प्रकाशन- अध्ययन- वाचन और प्रचार-प्रसार से अनेक विषयों की जटिलताएँ स्वयमेव दूर हो चुकी हैं तथा मथुरा संस्करण के अनेक टिप्पण विषय को विस्तार ही देते हैं। इस संस्करण के 'विशेष' की प्रस्तुति लालबहादुरजी की टिप्पणियों से कुछ अलग हट कर अपनी विशेषता लिये हुए है। दोनों में प्रमुख अन्तर इस प्रकार है (i) मथुरा संस्करण में टिप्पण अलग पृष्ठों पर ग्रन्थ के अन्त में दिये गये हैं, जबकि इस संस्करण में जहाँ वांछित समझे गये वहीं 'विशेष' शीर्षक देकर, खड़ी बोली में मूलपाठ से भिन्न बड़े टाइप में। इस प्रकार विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया हैं कि पाठक स्वाध्याय के साथ-हीसाथ विषय को सही सन्दर्भ में समझ कर आगे बढ़ सके।Page Navigation
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