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भावभूमि ये भी क्वाण्टम के ही समूह हैं। क्वाण्टम ऊर्जा है। ऊर्जा स्पन्दन उत्पन्न करती है। ये स्पन्दन ही स्थूल पदार्थ की आकृति-प्रकृति बनाते हैं। किसी के साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार कीजिए-भले ही वह पदार्थ हमें जड़ ही क्यों न नजर आता हो-वह व्यवहार उस पदार्थ के स्पन्दनों को और उस पदार्थ के स्पन्दन हमारे स्पन्दनों को प्रभावित करते ही हैं। यही कर्म सिद्धान्त का मूल है, यही अहिंसा के सिद्धान्त का मार्ग है।
अहिंसा केवल क्रूरता का अभाव नहीं है, अहिसा मैत्री का भाव भी है। श्रद्धा और मैत्री दोनों का जोड़ा है। श्रद्धा बड़ों के प्रति होती है, मैत्री बराबर वालों के साथ होती है तथा वात्सल्य छोटों के प्रति होता है। काम इन तीनों का एक ही है-चित्त को आर्द्र बना देना। जब चित्त आर्द्र हो जाता है तो हमारे मन से यही आवाज आती है सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्। सर्वहित की यह भावना एक बहुत शक्तिशाली उपकरण है। जब हम सबके प्रति कल्याण का भाव रखते हैं तो बदले में सब भी हमारे प्रति कल्याण का भाव रखेंगे। यह कल्याण की भावना केवल निराकार पदार्थ नहीं है, यह एक साकार तरंग है जो बहुत शक्तिशाली है और जो हमारे व्यक्तित्व में एक सौम्य रूपान्तरण ला देती है । सूक्ष्म की शक्ति
हमारा एक दूसरा अन्धविश्वास यह है कि स्थूल पदार्थ शक्तिशाली होता है; सूक्ष्म पदार्थ निर्बल होता है। वस्तुस्थिति इससे विपरीत है। सूक्ष्म पदार्थ स्थूल की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली होता है। हम यह मानते हैं कि किसी ने हमें एक लाख रुपये दे दिए तो यह बहुत बड़ी बात हो गयी। किसी ने हमें शुभकामना दी या आशीर्वाद दिया तो हम मान लेते हैं कि यह तो साधारण बात है। सच यह है कि एक लाख की राशि सीमित है, शुभकामना अथवा आशीर्वाद की शक्ति को आंकना कठिन है। बड़े-बड़े सम्राट् विश्व को वे नहीं दे पाए जो ज्ञानी जन दे गए हैं। सम्राटों के पास धनबल था और भुजबल भी था। उसका उपयोग उनके समय के कुछ लोगों के लाभ के लिए हो गया। किंतु जो उपनिषद्, आगम, बाइबल अथवा त्रिपिटक का ज्ञान दे गये वे अनन्त काल तक अनन्त मनुष्यों का उपकार करते रहेंगे। शक्ति भले ही स्थूल पदार्थ में हो भी, किंतु आनन्द सदा ज्ञान, कला और विचारों में सन्निहित रहता है। शरीर के प्रसंग में हम स्थूल हाड़-मांस को महत्त्व देते रहते हैं, किंतु महत्त्वपूर्ण प्राण है। प्राण ही हाड़-मांस को ढालता है। प्राण सूक्ष्म है। भारतीय परम्परा चिकित्सक को फिजिशियन (शरीरशास्त्री) नहीं कहती-अपितु प्राणाचार्य कहती है। चिकित्सा प्राणों की करनी है, शरीर तो प्राणों का अनुचर है।
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