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सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल • पानीय विधि-पेय प्रकारों (भौम, अन्तरिक्ष) का परिमाण । . मुखवास विधि-ताम्बूल आदि का परिमाण । १३. वाहन विधि-वाहन का परिमाण।। १४. शयन विधि-पलंग, बिछौने आदि का परिमाण । १५. उपानद् विधि-जूते, चप्पल आदि का परिमाण । १६. सचित्त विधि-सजीव द्रव्यों का परिमाण । १७. द्रव्य विधि-खाद्य, पेय पदार्थों की संख्या का परिमाण ।
भोजन संबंधी उपभोग-परिभोग व्रत की सुरक्षा के लिए मैं इन अतिक्रमणों
से बचता रहूंगा। १. सचित्ताहार-प्रत्याख्यान के उपरान्त सचित्त वस्तु का आहार करना। २. सचित्त प्रतिबद्धाहार-सचित्त संयुक्त आहार करना। ३. अपक्व धान्य का आहार करना। ४. अर्धपक्व धान्य का आहार करना। ५. असार फल आदि खाना।
___ इन पांच मुख्य व्रतों के अतिरिक्त एक दिग्व्रत भी महत्त्वपूर्ण है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति यह सीमा बांधता है कि वह अपना व्यवहार एक विशेष दूरी तक ही सीमित रखेगा।
इन व्रतों के अतिरिक्त तीन शिक्षाव्रत भी हैं-सामायिक व्रत, पौषधोपवास व्रत और अतिथि संविभाग व्रत । जिनका संबंध मुख्यतः अध्यात्म से है। इनका कोई सीधा सामाजिक आयाम नहीं है। इसलिए उनका विशेष विवरण प्रस्तुत प्रसंग में अनावश्यक है।
पूंजीवाद और समाजवाद की व्यवस्था अर्थकेन्द्रित थी। वर्णाश्रम व्यवस्था में अर्थकेन्द्र में तो नहीं था, किंतु फिर भी अर्थ का महत्त्व था। वेदव्यास ने धर्म से अर्थ और काम की सिद्धि मानी-धर्मादर्थश्च कामश्च...। जैन परम्परा को धर्म का यह स्वरूप स्वीकार्य नहीं है, जहां धर्म अर्थ और काम का साधन बनकर रह जाता है। जैन के लिए धर्म केन्द्र में है और धर्म का लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष की ओर अग्रसर होने के लिए अर्थ और काम शनैः शनैः त्याज्य हैं, न कि ग्राह्य । श्रमण संस्कृति के इस प्रवाह में ब्राह्मण परम्परा के दर्शन भी बह चले
और पूर्व मीमांसा को छोड़कर शेष सभी दर्शनों ने धर्म का उद्देश्य मोक्ष मान लिया। इस प्रकार सभी दर्शन चाहे श्रमण हो या ब्राह्मण मोक्षोन्मुख होकर निवृत्ति प्रधान हो गये। परिणाम यह हुआ कि पुराण और स्मृति भले ही सामाजिक चिन्तन करती रही हो, किंतु दर्शनों में सामाजिक पक्ष इस अर्थ में
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