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महावीर उवाच हालत यह हो गई है कि हर जगह फैक्टरी, दफ्तर, घर या खाने-पीने की हर चीज में इन रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है। सभी तरह के शीतल पेय रसायनों से बनते हैं। यानी शीतल पेय और कुछ नहीं बस रासायनिक पेय ही है। इस भयानक स्थिति को कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों ने जीवन का रासायनीकरण कहा है।
एक अमेरिकी पर्यावरण संस्था नेचुरल रिसोर्सेज डिपेंस काउंसिल ने अनुमान लगाया है कि औद्योगिक कचरे को ठिकाने लगाने के लिए वहां कोई ५० हजार बड़े-बड़े गड्ढे बनाए जा चुके हैं। वहां हर साल २५० लाख टन विषाक्त औद्योगिक कूड़ा जमा हो रहा है। ___जमीन में दबाए गए इस जहरीले कचरे में से १४ हजार टन कचरा ऐसा है, जो देर सवेर भारी नुकसान पहुंचाने वाला है। दबे होने के बावजूद उसका जहर जमीन और भूमिगत पानी के भंडार पर असर कर सकता है। इसके नतीजे तो १०-१५ बरस में ही मालूम पड़ पायेंगे, क्योंकि कैंसर का पता इतने समय में ही लग पाता है।
(पृष्ठ १५०-१५१) १६८० में एक अनुमान के अनुसार १६६ लाख टन राख सिर्फ ताप बिजली घरों से निकली। इस ढेर को ठिकाने कहां लगाएं ? हर दिन यह गंभीर रूप लेती जा रही है, क्योंकि ताप बिजली घरों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस राख में कुछ खतरनाक धातुओं के अंश भी होते हैं जैसे जिंक, बेरियम, कॉपर, आर्सेनिक वैनेडियम, थैलियम और मैंगनीज । आम तौर पर इस राख को बिजलीघर के आसपास ढेर लगाकर रखा जाता है, लेकिन कई जगह इसे नदियों में या तालाबों में फेंक दिया जाता है। कई बार इसे बड़े-बड़े गड्ढों में डाल दिया जाता है। तब ये खतरनाक धातुएं भूमिगत जल भंडार से जा मिलती हैं और भूजल भी जहरीला हो जाता है।
(पृष्ठ १५२) नागदा की ग्रासिम फैक्ट्री के एक कर्मचारी मांगीलाल अपने बांए हाथ के बारे में कहते हैं, "यह मेरा नहीं है।” उनकी आवाज भी लड़खड़ाने लगी है। स्थानीय जन सेवा अस्पताल के एक डॉक्टर के अनुसार मांगीलाल को आंशिक पक्षाघात हो गया है। पूरी तरह ठीक होने में मांगीलाल को महीनों लग सकते हैं। वे ग्रासिम कारखाने के स्टेपल फाइबर प्लांट में १६ साल से खलासी के पद पर काम कर रहे थे।
कालूराम जैन भी इसी फैक्ट्री में थे। पर १६७४ में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। लगा कि वे अगर वहां काम करते रहे तो मर जायेंगे। प्लांट में रासायनिक भाप उन्हें कमजोर बनाए दे रही थी। हालांकि उन्हें यह नहीं पता कि यह भाप
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