Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 344
________________ ३२६ महाप्रज्ञ-दर्शन ० संघर्ष-संदेह-भय-द्वेषा-क्रूरता-क्रोध-निराशाश्च ० तेऽसंतुलनहेतवः , अनुकूलता का वियोग, प्रतिकूलता का संयोग, असहायता की अनुभूति, संघर्ष, संदेह, भय, द्वेष, ईर्ष्या, क्रूरता, क्रोध और निराशा ये सब मन में असंतुलन उत्पन्न करते हैं। असंतुलित मन में अशांति पैदा होती है। ० मूर्छा च मूर्छा के कारण व्यक्ति बुरे विचारों, बुरी भावनाओं और बुरे आचरणों से भर जाता है। जब जागृति हस्तगत होती है तब पवित्र विचार, पवित्र भावनाएं और पवित्र आचरण अपने आप बाहर आने लग जाते हैं। द्वंद्वचेतना समस्याओं की जननी है। जब तक द्वंद्व-चेतना है तब तक ज्ञान, दर्शन और शुद्ध शक्ति का उपयोग कार्यकर नहीं होता। मूर्छा उत्पादक केन्द्र है। वह आवेग को उत्पन्न करती है। द्वंद्व को उत्पन्न करती है। इस स्थिति में ज्ञान, दर्शन और शक्ति के होने पर भी दुःख समाप्त नहीं होता। साधना का विघ्न है-अधृति। मूर्छा मोह के स्पन्दन सबसे अधिक होते हैंमोह के स्पंदन हैं-आवेग, भय, शोक, घृणा, वासना और विषाद। ये प्रतिपक्षी संवेदनों से निरस्त हो जाते हैं। समस्या का मूल है-मनोबल की दुर्बलता। समस्या क्या है-शरीर शास्त्र और मन शास्त्र की भाषा में तनाव, कर्मशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र की भाषा में-कर्म विपाक। समाजशास्त्र की भाषा में-परिस्थिति और वातावरण । अर्थ की भाषा में-उत्पादन कम, खपत अधिक, आय कम, आवश्यकता अधिक। ० प्रतिक्रिया च वह पराजय को निमंत्रण देता है जो क्रिया से विमुख है। प्रतिक्रिया के सम्मुख चलता है। ० हिंसा च हिंसा और हिंसा-परस्पर सजातीय हैं। इसलिए हिंसा हिंसा को मारती नहीं, उबारती है उसे परम्परा पात में प्रवाहित करती है। ० आत्मन्यविश्वासश्च आत्म-विश्वास जितना शून्य होता है उतना ही उसमें परिस्थिति को अवकाश मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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