Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 364
________________ ३४६ महाप्रज्ञ-दर्शन जैनेन्द्र- कहीं असहिष्णुता भी सद्व्यवहार का अंग हो सकती है? मुनिश्री- हाँ, हो सकती है। जैनेन्द्र- असहिष्णुता होगी तो कठोरता आ जायेगी। मुनिश्री- कुम्हार घड़े को पीटता है पर नीचे उसका हाथ रहता है। मृदु व्यवहार में इसका अवकाश है। जैनेन्द्र- सत् व्यवहार की कसौटी आत्मीयता हो सकती है, मृदुता कैसे? मुनिश्री- मैंने क्रूरता के प्रतिपक्ष में मृदुता का प्रतिपादन किया, कठोरता के प्रतिपक्ष में नहीं। कठोरता क्रूरता से भिन्न है। माँ का पुत्र के प्रति और गुरु का शिष्य के प्रति आवश्यकतावश कठोर-भाव हो सकता है, पर क्रूरता नहीं। जैनेन्द्र- सदाचार शब्द चलता है। किंतु सदाचार काफी नहीं, सत्याचार होना चाहिए। सदाचार समाज की मानी हुई तात्कालिक नीति है। यदि धर्माचरण का विचार भी वहीं तक रह गया तो जिस क्रान्ति की आवश्यकता है, वह धर्म की ओर से नहीं आयेगी, धर्म को उससे गहरे जाना चाहिए। शान्ति, सहिष्णुता आदि शब्द भी कुछ वैसे ही रूढार्थ में प्रयुक्त होने लगे हैं। मुनिश्री- सदाचार में सत् शब्द है, वह भी सत्य का वाचक है। सत् अर्थात् सत्य। समय की मर्यादा के साथ दूसरा अर्थ आ गया। सदाचार सत्याचार ही न रहा, अच्छा आचार भी बन गया । भाषा शास्त्र के अनुसार शब्द का अपकर्ष और उत्कर्ष होता रहा है। जैनेन्द्र- सत्याचार की अभिव्यक्ति वह होगी, जो आज सदाचार में नहीं है। मुनिश्री- यह ठीक है। सदाचार के पीछे जो भावना आ गई है, शब्द परिवर्तन से उसमें भावना भी परिवर्तित हो सकती है। जैनेन्द्र- साहित्य में प्रतिक्रिया और पलायन-दो शब्द बहुत चल रहे हैं। मुझे पलायनवादी कहा जाता है। मैं कहता हूँ, ऐसा कौन है जो बैल को सामने देखकर पलायन न करे? मुनिश्री- हर शब्द की यही स्थिति है। उत्कर्ष, अपकर्ष, उत्क्रान्ति, अपक्रांति से मुक्त कोई शब्द नहीं है। आज से दो-ढाई हजार वर्ष पहले "पाषंड" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372