Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 366
________________ ३४८ महाप्रज्ञ-दर्शन विराग नहीं होगा। व्यवहार की ओर झुकें तो निश्चय टूटेगा, निश्चय पर झुकें तो व्यवहार टूटेगा। निश्चय का पूरी ईमानदारी से पालन करेंगे तो व्यवहार स्वयं सधेगा। मुनिश्री- तीर्थंकर सारे व्यवहार का प्रवर्तन करते हैं, संघ का प्रवर्तन करते हैं, व्यवस्था का प्रवर्तन करते हैं। यह व्यवहार कहाँ से आया ? प्रवृत्ति उनके जीवन में कहाँ से आयी ? निश्चय में से ही व्यवहार निकला है। तीर्थंकर कृतकृत्य हो गए, उनके लिए करना कुछ प्राप्त नहीं, फिर भी वे करते हैं। कोई भी शरीरधारी व्यवहार से मुक्त नहीं हो सकता। जब तक शरीर का पराक्रम है तब तक व्यवहार होता रहेगा। श्रावक के बारह व्रतों में एक अतिचार है कि "अपने आश्रितों की जीविका का विच्छेद नहीं करूंगा।" यह व्यवहार कहाँ से आया? जो जितना धार्मिक होगा, उसका व्यवहार भी उतना ही सुखद होगा। जैनेन्द्र- सुन्दरता दृष्टि से स्वतंत्र चीज है क्या ? उसका स्वतंत्र अस्तित्व है क्या? मुनिश्री- सुंदरता संस्थानगत और रूपगत होती है। प्रियता मनोगत होती है। कड़वी के कड़वी चीज भी मनोगत हो सकती है पर मधुर नहीं। 'अमुक स्त्री सुंदर है पर पति के मन को नहीं भाती। वह क्यों? उसके प्रति प्रियता का मनोभाव नहीं हुआ। प्रियता जहाँ जुड़ती वहाँ घृणा नहीं रहती। मन में प्रेम का विस्तार हो तो सामने वाली वस्तु गौण हो जाएगी कि यह मनोरम है या मनोरम नहीं है। प्रेम का विस्तार सबको समा लेता है, वह "प्रति” पर निर्भर नहीं होता, अपने पर निर्भर होता है। "प्रति” का अर्थ किसी के प्रति नहीं यानी सबके प्रति । प्रेम संबंध का विस्तार नहीं, आत्मगुण का विस्तार है। जैनेन्द्र- प्रेम में विवेक का स्थान नहीं है क्या ? मुनिश्री- विवेक से व्यवहार फलित होता है, प्रेम तो अखण्ड होना चाहिए। कोई मेरे साथ पांच प्रतिशत व्यवहार ठीक करता है और कोई दस प्रतिशत । प्रेम भी उसी अनुपात से हो तो वह खण्डित हो जाएगा। जैनेन्द्र- पर सापेक्षता प्रेम के लिए संगत है। मुनिश्री- विस्तार की प्रक्रिया क्या हो, यह सहज ही प्रश्न हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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