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महाप्रज्ञ-दर्शन जिसे आत्मरमण कहते हैं, वह ठीक है, पर आत्म-रमण और स्व-रति में भेद है। आत्मरमण बड़ा शब्द है। स्व-रति मनोविज्ञान में भी चलता है, वह संकुचित है। भक्त और भगवान दो हैं। भक्त अपनी ही भक्ति
में स्व का द्वैत उत्पन्न करे, फिर एकीकरण करे? मुनिश्री- द्वैत और एकीकरण, यह दोनों प्रक्रियाओं में समान है। एक जगह
भगवान् और भक्त का एकीकरण है तो दूसरी जगह आत्मा की दो भिन्न स्थितियों का एकीकरण है । सहारे की अपेक्षा हो तो वह उसमें
भी है और इसमें भी है। जैनेन्द्र- जो "स्व" में ही निष्ठ हो गया, होते-होते निकम्मा ही नहीं, विक्षिप्त
हो गया। परिस्थिति से संबंध रह नहीं सका। मुनिश्री- यह परिस्थिति की तुलना में स्व-निष्ठा की बात नहीं है। स्व-निष्ठा
का अर्थ चैतन्य है, प्रबुद्धता है और वह प्रबुद्धता जिसमें चैतन्य ही चैतन्य हो। साधनाकाल में ध्याता और ध्येय का विभाग रहता है,
सिद्धि-काल में वे दानों एक हो जाते हैं। जैनेन्द्र- चैतन्य का स्वभाव सिमटकर सीमित होना नहीं है। चेतना बाहर से
लौटकर भीतर की ओर नहीं आती, वह बाहर की ओर फैलकर
विराट् बन जाती है। मुनिश्री- चैतन्य का भीतर की ओर लौटाने का अर्थ सिमटना नहीं किंतु
विस्तार ही है। आप क्षेत्रीय विस्तार की भाषा में कह रहे हैं, मैं शक्ति-विस्तार की भाषा में कह रहा हूँ। क्षेत्रीय दृष्टि से तो आकाश
भी विराट् है। चैतन्य की विराटता उससे विलक्षण है। जैनेन्द्र- आप कहते हैं, कल्पना को समाप्त कर दो। मैं कहता हूँ कल्पना को
मुक्त कर दो। मुनिश्री- साधना के कुछ स्तरों में आपकी भाषा मान्य हो सकती है। साधना
का स्तर सबका एक नहीं होता। जैनेन्द्र- कल्पना को छोड़ने में लगे हुए अधिक बिखर गए हैं, यह मैंने देखा
है।
मुनिश्री- उनका आत्मा के साथ ठीक योग नहीं हुआ। जैनेन्द्र- योग शब्द ठीक है। पहले आपने विछिन्न कहा। यदि योग है तो यह
मैं भी मानता हूँ।
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