Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 360
________________ ३४२ महाप्रज्ञ-दर्शन बनाने की स्थिति आत्म-लीनता नहीं है । आत्म-लीनता वह स्थिति है, जहाँ चैतन्य के पराक्रम के सामने बाह्य स्थिति अकिंचितकर बन जाती है। जैनेन्द्र- क्या संयम नितान्त निरपेक्ष है? मुनिश्री- निरपेक्ष नहीं, किंतु सापेक्ष है। जैनेन्द्र- संयम की अपेक्षा क्या है ? मुनिश्री- जब तक आसक्ति है, तब तक संयम अपेक्षित है। जैसे ही आसक्ति क्षीण हुई, वैसे ही संयम कृतकार्य हो चला। निरपेक्ष मूल्य अपने अस्तित्व का है। शेष वही बचता है। संयम बंधन नहीं है। वह मुक्ति है और वह मुक्ति, जिसका उत्स अनुराग है। "अनुरागाद् विरागः" -यह संयम का सिद्धान्त है। जिसके प्रति अनुराग होगा, उसके प्रतिपक्ष में विराग और बाह्य के प्रति अनुराग, आत्मा के प्रति विराग। बाह्य के प्रति विराग यानी संयम। जैनेन्द्र- इस आत्मलीनता में मुझे बहुत खतरा दिखाई देता है। यह स्व-रति का भाव आगे चल स्वार्थ में बदल जाता है। स्वार्थ की प्रेरणा में मुझे कोई रस नहीं है। मुनिश्री- आप स्व-रति का जिस अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं, वह आत्मलीनता से भिन्न है। आत्मलीनता में परमार्थ की प्रेरणा प्रबल होती है। स्वार्थ मोह का रूपान्तर है जबकि आत्मलीनता मोह का विसर्जन। जैनेन्द्र- मनुष्य को जब तक मैं हूँ- "अहम् अस्मि" का अनुभव होता रहता है, तब तक वह लीन नहीं हो सकता। अत: “वह है" के चिन्तन में ही अहम् से मुक्ति मिल सकती है। "वह अखण्ड तत्त्व का प्रतीक बनता है, "मैं" खण्डित बोध का। इसीलिए जिस प्रक्रिया में अहं का विसर्जन होता है वही कायोत्सर्ग है। कुछ भक्त भजन में इतने लीन हो जाते हैं कि अपने आपको भूल जाते हैं। इस अवस्था में वे जो कहें, वह इतना संवेदनपूर्ण हो जाता है कि उसका प्रभाव अचूक होता है। विचार-संप्रेषण इसी तन्मयता की उपलब्धि है। जब "मैं" "वह" में लीन हो जाता है तो उस एकाग्रता में विचार अपने आप अतिक्रान्त होने लग जाते हैं। इसमें देश की दूरी भी व्यवधान नहीं बन सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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