Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 359
________________ महाप्रज्ञ-जैनेन्द्र-सम्वाद जैनेन्द्र- क्या मुनि - जीवन में कष्ट - लीनता नहीं है । मुनिश्री - मैं समझता हूँ नहीं है । जैनेन्द्र- क्या कोई कष्ट नहीं आता ? मुनिश्री - आता है, पर कष्ट का आ पड़ना एक बात है और कष्ट की लीनता दूसरी बात है । भगवान् महावीर के साधना काल में अनेक कष्ट उपस्थिति हुए। वे कष्टलीन होते तो उन्हें कभी नहीं झेल पाते। किंतु वे आत्मलीन थे, इसलिए उन्हें झेल सके । जैनेन्द्र- यदि आत्म-लीनता मूर्च्छा जैसी स्थिति है तो वह मुझे प्रिय नहीं हो सकती। उसमें चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है, और जहाँ चैतन्य का पुरुषार्थ नहीं है, वहाँ अध्यात्म नहीं हो सकता, ऐसा मैं मानता हूँ । मुनिश्री - मैं आत्म-लीन को चैतन्य की मूर्च्छा नहीं बता रहा हूँ। मैं यह बता रहा हूँ कि आत्म-लीनता घनीभूत हो जाती है, तब चैतन्य इतना पराक्रमी बनता है कि बाह्य के प्रति शून्यता अपने आप आ जाती है । जैनेन्द्र- कुछ लोग मादक द्रव्य के प्रयोग को साधना का अंग मानते हैं, वे क्यों गलत हैं? मुनिश्री - वे इसलिए गलत हैं कि मादक द्रव्यों के सेवन से चेतना मूर्च्छित हो जाती है । जैनेन्द्र- चेतना की मूर्च्छा आपको पसन्द नहीं है ? मुनिश्री नहीं कतई नहीं। जैनेन्द्र- तब फिर चलिए । मुनिश्री - मेरी समझ में बाह्य संवेदना को शून्य कर चैतन्य को पराक्रम-विमुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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