Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 353
________________ विभूत्यधिकरणम् ३३५ ध्यान की प्रक्रिया में अन्तर्यात्रा का प्रयोग किया जाता है। अन्तर्यात्रा का अच्छा अभ्यास होने पर, सुषुम्ना में चित्त की ऊपर से नीचे की यात्रा होने पर ऐसे सुख का अनुभव होता है कि जैसा शायद भोग में भी नहीं होता। दर्शन केन्द्र पर बालसूर्य का ध्यान करते-करते ऐसे स्पन्दन जागते हैं, ऐसे सुख का अनुभव होता है कि वैसा सुख काम-सेवन में भी नहीं होता। ० भावशुद्धिश्च ० तच्छुद्धौ समाजशुद्धिश्च भावशुद्धि के द्वारा व्यक्ति का रूपांतरण होता है और फिर समाज का भी रूपांतरण हो जाता है। ० समाहितात्मा च अमाया, अलोभ, अकलह आदि का अवतरण होता है। समत्व की प्रज्ञा जाग जाने का दूसरा लक्षण है कि मन समाहित हो जाता है। ऐसा व्यक्ति "समाहितात्मा” कहलाता है। उसका मन पूर्ण समाहित होता है। समस्याएं आती हैं, पर वे मन को उलझा नहीं पातीं। वे हट जाती हैं, दूर चली जाती हैं। ० परचित्तावबोधक्षमता च उसे देखने के लिए अतीन्द्रिय प्रतिभा का विकास जरूरी है। प्रेक्षाध्यान के द्वारा वह किया जा सकता है। उसका विकास होने पर आभामंडल को देखा जा सकता है और आभामंडल के द्वारा विचारों को देखा जा सकता है। ० आभामण्डलस्य स्वास्थ्यञ्च जैसे अनुकूल भोजन से शरीर पुष्ट होता है। प्रतिकूल भोजन से वह क्षीण होता है, उसी प्रकार पवित्र भावना से शरीर और आभामंडल दोनों स्वस्थ होते हैं। भय, शोक, ईर्ष्या आदि द्वारा अनिष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है, उनसे शरीर और आभामंडल-दोनों विकृत होते हैं। ० परिवेशपवित्रीकरणञ्च ध्यान करने वाला अकेला व्यक्ति ही प्रभावित नहीं होता, सारा वातावरण मंगलमय तरंगों से प्रभावित होता है। आज इतनी सूक्ष्म खोजें हो चुकी हैं कि हमारे शरीर से, वाणी से और मन से निकलने वाले परमाणुओं से आस-पास के पूरे वातावरण में प्रभाव होता है। अच्छे और बुरे परमाणु वर्षों तक अपना प्रभाव बनाये रखते हैं। अच्छे परमाणु सारे वातावरण को पवित्र बना देते हैं। यहाँ सामूहिक ध्यान चल रहा है। सभी उपस्थित व्यक्ति ध्यान में आने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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