Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 347
________________ अन्तरायाधिकरणे शारीरिकबाधापदः ३२६ २. भय का सतत चिन्तन जब बुद्धि में भय समा जाता है, जब आदमी मान लेता है कि भय है तब भय ही भय दीखता रहता है। जब एक बार ऐसा होता है तब भय पैदा होता ही रहता है। भय की उत्पत्ति का दूसरा स्रोत है-भय की मति। ३. भय की मति डर की बातें करना, डर के विषय में सोचते रहना, बार-बार भय उत्पन्न करने वाला साहित्य पढ़ना, उसी का श्रवण करना, उसी का मनन करना, उसी का निदिध्यासन करना-ये सारे भय की उत्पत्ति में सहायक बनते हैं। भय का तीसरा स्रोत है-भय का सतत चिन्तन करना, भय की बातें करना। ४. भय के परमाणुओं का उत्तेजित होना भय की उत्पत्ति का यह चौथा स्रोत बहुत ही महत्वपूर्ण है। व्यक्ति के समक्ष कोई उद्दीपक स्थिति नहीं है, कोई भय की स्थिति नहीं है, न कोई भय का चिंतन चलता है, न भय देने वाली वार्ता हो रही है, न बुद्धि में भय समाया हुआ है, कुछ भी नहीं है फिर भी मोहनीय कर्म के परमाणु सक्रिय होते ही भय लगने लग जाता है। यह बाहरी कारणों से होने वाला भय नहीं है। इसकी उत्पत्ति का मूल कारण आन्तरिक है। बाह्य कारणों की अपेक्षा से इसे अहेतुक या अकारणिक भय कहा जाता है। यह केवल अपने भीतर संचित भय के परमाणुओं की सक्रियता से उत्पन्न होता है। अकारण ही भय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, अकारण ही डर लगने लग जाता है। ० अहङ्कारममकारौ च समस्याओं को पैदा करने वाली हमारी दो अवस्थाएं हैं-अहंकार का विकास और ममकार का विकास । परदर्शन से अहंकार और ममकार बढ़ता है। ० शत्रुताभावश्च ___ जिस व्यक्ति में मैत्री का विकास नहीं होता उस व्यक्ति का मनोबल विकसित नहीं होता। शत्रुता एक जहरीला कीड़ा है, वह जिसके पीछे लगता है, उसे निरन्तर सताता है और तब मनोबल दबता चला जाता है। वह कुंठा, अवसाद और घृणा पैदा करता है। ० परप्रभावनेयता च जो व्यक्ति सहसा दूसरे के प्रभाव में आ जाता है, वह अपनी शक्ति से वंचित हो स्वयं को शून्य-सा अनुभव करने लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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