Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 348
________________ ३३० भावान्तराया इत्यधिकृत्य इन्द्रियानुगामिता अब प्रश्न है, क्या सुख को स्थायी बनाया जा सकता है? क्या दुःख को समाप्त किया जा सकता है? सीधा उत्तर होगा कि इन्द्रिय जगत् में ऐसा होना कभी संभव नहीं है। जब तक हम इन्द्रिय जगत् में जीयेंगे तब तक यह स्वप्न ना दिवास्वप्न है । इन्द्रिय जगत् में आदमी जीए और सुख या दुःख - एक का ही अनुभव करे, यह असंभव बात है । यह द्वंद्व बराबर चलता रहेगा । यह चक्र समाप्त होता है फिर कोरा सुख बचता है, वह आनन्द बन जाता है। आनन्द से सुखानुभूति होती है, वह सुखानुभूति इस सुख-दुःख के चक्र में कभी नहीं होती । जब तक हम इन्द्रियानुभूति में रहते हैं तब तक वह कोरी कल्पना ही होती है। जो लोग केवल इन्द्रिय रस को जानते हैं, इन्द्रिय रसों का स्वाद लेते हैं और उन्हें ही सब कुछ मानते हैं, उनके लिए आनन्द कोरी कल्पना है । ० आसक्तिश्च O इन्द्रिय चेतना का जागरण होने पर आसक्ति का जागरण होता है। वैराग्य का भाव दब जाता है। यही बात मनचेतना के विषय में है। आदमी बुद्धि की चेतना से काम करता है। वह तर्क का व्यवहार करता है । वह आदमी को उलझा देता है। आदमी व्यवहार की दुनिया में बुद्धि के सहारे जीत सकता है पर वह सच्चाई तक नहीं पहुँच सकता । O मनोविकाराश्च सबसे पहले चोट करनी चाहिए उपाधि पर, भावात्मक व्याधि पर । काम, क्रोध, अहं, ईर्ष्या, माया, लोभ- ये सब भावात्मक दोष हैं। इन पर चोट किये बिना भावनाओं को स्वस्थ नहीं रखा जा सकता । ० ० महाप्रज्ञ - दर्शन ० पापानि च चतुर्धा विभक्तानि पहला वर्ग - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह । दूसरा वर्ग - क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष । तीसरा वर्ग - कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, रति- अरति । चौथा वर्ग- माया, मृषा और मिथ्यादर्शन | इन चार वर्गों में पाप समाहित हो जाते हैं । अभावश्च अतिभावश्च अशांति का एक कारण अभाव होता है तो दूसरा कारण अतिभाव भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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