Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 345
________________ अन्तरायाधिकरणे शारीरिकबाधापदः दृष्टिविपन्नता च जो दृष्टि से विपन्न है, उसके लिए चहुँ ओर अंधकार है और जो दृष्टि से सम्पन्न है, उसक लिए चहुँ ओर प्रकाश ही प्रकाश है। ० ० स्वानुभूतेरभावश्च जब-जब शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई बढ़ती है और आत्मानुभूति घटती है तब धर्म निस्तेज हो जाता है । जब आत्मानुभूति बढ़ती है और शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई घटती है तब धर्म तेजस्वी हो जाता है। ० सकामता च धर्म जब-जब कामना की पूर्ति का साधन बनता है, तब-तब उसके आस-पास विकारं घिर आते हैं। विकारों से घिरा हुआ धर्म भूत से भी अधिक भयंकर होता है । ० अभिमानञ्च चित्त की असमाधि का हेतु है- अभिमान । मनुष्य जितना परिग्रही होता है, उतना ही अभिमानी होता है । परिग्रह का अर्थ है - मूर्च्छा, आसक्ति । ० मनोविकाराश्च मनोविकार का हेतु है मन की मलिनता । प्रतिदिन मन पर मैल जमता है, उस पर रजें चिपट जाती है । मन के छिद्र रुक जाते हैं। जिनके द्वारा हम स्वस्थ विचारों को ले सकते हैं वे सब रोम कूप बंद हो जाते हैं । ३२७ o आत्मप्रदर्शनञ्च मानसिक विकृतियों की कुछ धाराओं में एक है बड़प्पन की भावना का प्रदर्शन। प्रत्येक मनुष्य अपने आपको बड़ा दिखाना चाहता है । वह सोचता है - मैं बड़ा हूँ और सब छोटे हैं। ० ईर्ष्या च ईर्ष्या भी मानसिक विकृति है । दूसरे की प्रगति देखी और मन में एक सिकुड़न पैदा हो गयी । जब यह होता है तब दूसरे की प्रगति पर दिल जलता है, कुढ़ता है और जल भुनकर राख हो जाता है । ० यथार्थापलापश्च सबसे बड़ी बीमारी है - सच्चाई को झुठलाने की मनोवृति | इससे मानसिक तनाव पैदा होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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