Book Title: Mahapragna Darshan
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 338
________________ ३२० महाप्रज्ञ-दर्शन है। जिसका सुषुम्ना का मार्ग नहीं खुलता, उसका मन, इन्द्रियां अन्तर्मुख नहीं होती, चंचलता समाप्त नहीं होती। ० मनोविकाराश्च ० निषेधात्मका भावाश्च जो व्यक्ति अपने मनोभावों का शिकार होता है, वह बीमारियों को निमन्त्रित करता है। भय, घृणा, क्रोध, कपट आदि निषेधात्मक भाव साधना के विघ्न हैं। ० ऊर्जापव्ययश्च भगवान् महावीर ने साधना के प्रथम सूत्र के रूप में अनशन का विधान किया। इसका अर्थ है - ऊर्जा का कम खर्च हो। जो हो वह मुख्यतः चेतना के विकास के लिए मस्तिष्क में ही हो। मस्तिष्क की ऊर्जा का पेट के लिए उपयोग करना चेतना के विकास का अवरोध है और पेट की ऊर्जा का मस्तिष्क के लिए उपयोग चेतना के विकास की साधना है। ० अब्रह्म च ० रसलोलुपता च जीवन रस को चूसने वाली दो बाते हैं-अब्रह्मचर्य और जीभ की लोलुपता। इन दोनों की उच्छृखलता सारे जीवन के रस को निचोड़ डालती श्री ० त्वरा च प्रमादश्च साधना के क्षेत्र में जल्दबाजी उतावलापन बाधा है। साधना के विघ्न हैं-प्रमाद, अकर्मण्यता, आलस्य। ० जनसङ्कुलता च सामग्री का हमारे जीवन में बहुत बड़ा स्थान है। आत्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति उससे प्रभावित है। समुदाय भी एक सामग्री है। मन विशाल होता है तो समुदाय विघ्न नहीं बनता। मन छोटा होता है तो समुदाय बाधक बन जाता है। ये दोनों मन की उष्ण और शीत ग्रन्थियों के ही परिणाम हैं। ० क्रियाप्रतिध्वनिश्च प्रवृत्ति समाप्त होने के बाद भी उसकी प्रतिध्वनि समाप्त नहीं होती। ये प्रतिध्वनियां हमारी शक्ति को खत्म करती हैं। जहाँ केवल दर्शन होता है वहां प्रतिध्वनि-प्रतिक्रया नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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