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महाप्रज्ञ-दर्शन
जहां तक व्यक्ति का प्रश्न है हमें मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझना होगा कि जब हम क्रोध का उत्तर क्रोध से देते हैं तो उसके तीन परिणाम होते हैं१. हम अपना मानसिक संतुलन खोते हैं। २. हम सामने वाले के क्रोध में अपने क्रोध द्वारा सहयोग करते हैं अर्थात्
अपने क्रोध से उसके क्रोध को बढ़ावा देते हैं। ३. हम यह स्वीकार करते हैं कि हम इतने बलवान् नहीं हैं कि सामने वाला कितना भी क्रोध करे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
जब हम क्रोध का उत्तर क्रोध से देते हैं तो आग को बुझाने के लिए आग ही डालते हैं। क्रोध का अर्थ है- असहिष्णुता । क्षमा का अर्थ है सामर्थ्य । जब हम किसी के क्रोध को सहन नहीं कर पाते हैं तो हम अपनी निर्बलता का परिचय देते हैं। जब हम क्षमा करते हैं तो हम अपनी यह सामर्थ्य प्रकट करते हैं कि सामने वाले व्यक्ति की दुष्टता हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।
दुष्ट और दुष्टता में अन्तर करना आवश्यक है। कोई व्यक्ति स्थायी रूप से दुष्ट नहीं होता है। करुणा के द्वारा उसकी साधुता को उभारा जा सकता है। यह दुष्टता को बढ़ावा देना नहीं है, दुष्टता का
दीर्घगामी उपचार है। ४. अधिकार के लिए लड़ना चाहिए-यह सच है किंतु ज्यों-ज्यों मनुष्य जाति
का विकास होता है वैसे-वैसे यह व्यवस्था बनती जाती है कि कोई किसी का अधिकार छीन ही न सके । अधिकार की लड़ाई का सही रूप यह है कि हम व्यवस्था ऐसी बनायें जिसमें सबको अपने अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएं। यदि किसी को अधिकार प्राप्त न हो तो वह न्यायालय का दरवाजा खटखटा सके यह संभावना बनानी चाहिए। इसके लिए न्याय प्रणाली
सस्ती, सरल और त्वरित होनी चाहिए। ५. राष्ट्र की अवधारणा मनुष्यकृत है। प्रकृति ने पूरी पृथ्वी को एक बनाया है।
सुविधा के लिए हमने उसे राष्ट्रों में विभक्त किया है। जब तक भेद के पीछे अभेद को न समझा जाये, तब तक राष्ट्र की अवधारणा हिंसा और शोषण का रूप धारण कर लेती है। अपने देश में देखें तो केवल दो सौ वर्ष पूर्व यह देश विभिन्न रजवाड़ों में बंटा हुआ था। हर रियासत की अपनी सेना थी, अपने किले थे और ये आपस में एक दूसरे से लड़ाई करते रहते थे। उस समय देशभक्ति का रूप अपने राजा के प्रति वफादारी था। जब किन्हीं दो रियासतों की सेनाएं आपस में लड़ती थी तो उसे कर्तव्य पालन
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