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महाप्रज्ञ-दर्शन समझना कि आपाततः अच्छा क्या है और परिणामतः अच्छा क्या है? भोग आपाततः अच्छे लगते हैं किंतु परलोक की बात छोड़ भी दें तो इस लोक में भी भोगों का परिणाम अच्छा दिखाई नहीं देता। ___भोग अतृप्ति उत्पन्न करते हैं। अतृप्ति के कारण मनुष्य को मायाचारिता का प्रयोग करना पड़ता है। झूठ का सहारा लेना पड़ता है।
एक ओर इन्द्रियां हमें ज्ञान देती हैं, दूसरी ओर मोहनीय कर्म उसमें संवेदना जोड़ देता है। पदार्थ बाहर मनोज्ञ या अमनोज्ञ हो सकता है, किंतु वह केवल निमित्त है। उपादान कारण है हमारा राग-द्वेष। उपादान न हो तो निमित्त कुछ नहीं कर सकता। सड़क के कांटों को चमड़े से नहीं ढका जा सकता। पांव को ही चमड़े के जूते से ढका जा सकता है।
वस्तुतः आसक्तिपूर्वक भोगने वाला व्यक्ति भोगों को भोग भी नहीं पाता। आसक्ति का प्रथम कार्य यह है कि वह हमें मर्यादा में नहीं रहने देती। मर्यादा का उल्लंघन करते ही भोग, अमृत से विष बन जाते हैं। मात्रा में खाया गया आहार शरीर को पुष्ट करता है। मात्रा से अधिक लिया गया आहार शरीर को रोगी बनाता है। मात्रा से अधिक आहार वही लेता है जिसकी आहार के प्रति आसक्ति है।
आज के युग में प्राचीन युग की अपेक्षा एक अन्तर आया है। प्राचीन युग में भी भोग भोगे जाते थे, किंतु भोगों का भोगना उपयोगी नहीं समझा जाता था। उपयोगी समझा जाता था योग। आज की स्थिति बदल गयी है। आज भोग को उपयोगी समझा जा रहा है और योग को हानिकारक माना जा रहा है। अब धीरे-धीरे युग करवट ले रहा है। हम यह समझ रहे हैं कि राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले तनाव रोगों का मुख्य कारण है। भोग हमारी रोग निरोधक शक्ति को क्षीण कर देते हैं। हमारी समझ में यह भी आ रहा है कि अनियन्त्रित भोग प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ता है। इसलिए यह आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है कि हम यह जानें कि हमारी चेतना का एक ऐसा स्तर भी है जो भोगों को भोगता ही नहीं है। ___हम भोग न भोगें यह लाचारी भी हो सकती है। हममें भोग भोगने की शक्ति भी है और भोग उपस्थित भी हो तब भी हम उन्हें भोगें नहीं तो संकल्प शक्ति का परिचय मिलता है, यही व्रत कहलाता है। यह संकल्प इतना दृढ़ होना चाहिए कि एक भोग छोड़ने पर दूसरा भोग मिल जाने की आशा न की जाये। भोग छोड़ दिया किंतु भोग की आशा बनी रही यह शल्य है। व्रती को निःशल्य होना आवश्यक है।
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