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सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल जो माल उत्पन्न होता है, वहां तो उस माल का अभाव पैदा हो जाये और वह माल दूसरी जगह की मंडी में विदेशी मुद्रा कमाने के लिए भरपूर मात्रा में फैला दिया जाये। शासकीय स्तर पर देश का स्तर ऊंचा उठाने के नाम पर ऐसी बेतुकी बातें होती रहती हैं। स्वदेशी की गरिमा
एक बार यदि हम इस सिद्धान्त को मान लें कि जो पदार्थ जहां उत्पन्न होता है, वही पदार्थ वहां के लोगों के लिए सर्वाधिक उपयोगी है तो भारतवर्ष में हजारों वर्षों तक चलने वाली ग्रामीण अर्थ व्यवस्था कुछ परिवर्तन के साथ सार्थक हो सकती है। गांधीजी ने इस संबंध में लघु कुटीर उद्योग की अवधारणा दी थी। औद्योगीकरण के युग में वह अवधारणा अव्यवहारिक लग सकती है। शायद राज्य की सहायता से चलने वाले कुटीर उद्योग सफल भी नहीं हो सकते । आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा के साथ हम ऐसा प्रशिक्षण भी जोड़ें जो मनुष्य को आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बना सके। यह ठीक है कि शिक्षा के क्षेत्र में बच्चे पर बोझा बढ़ने की शिकायत की जा रही है, किंतु यह स्थिति स्कूलों की है। कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्र वर्ष में दो या तीन महीने पढकर प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर लेते हैं। शेष समय में वे प्रायः खाली ही रहते हैं। उस समय में उन्हें अर्थोपार्जन में सहायक उद्योगों का प्रशिक्षण सरलता से दिया जा सकता है। समाजवाद के साथ अध्यात्म जुड़े
समाजवाद ने श्रमिक का महत्त्व बढ़ाने की बात तो की लेकिन श्रम का मानवीय गौरव वह भी रेखांकित नहीं कर पाया। क्योंकि वह एक भौतिक दर्शन था, जिसमें गौरव जैसी चीज उपेक्षणीय ही रहती है। श्रम के साथ यदि स्वावलम्बन जुड़ जाये तो मनुष्य में एक ऐसा आत्मविश्वास जागता है कि वह श्रम को कभी भी नीचा नहीं समझ सकता। सभी उत्पादन श्रम से होते हैं, किंतु जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि सभी उत्पादन मनुष्य के लिए उपयोगी होने जा रहा है, तो हमें अपने श्रम की एक सार्थकता नजर आने लगती है। ऐसा सारा उत्पादन जो मनुष्य के लिए सीधे रूप में उपयोगी हो वह प्रायः कुटीर उद्योग से उत्पन्न हो सकता है। उसके लिए बड़े कारखानों की जरूरत नहीं है। न ऐसा उत्पादन करने में बहुत पूंजी लगाने की आवश्यकता है और न ऐसे उत्पादन को खरीदने के लिए बहुत पैसा ही चाहिए। परिग्रह सम्माननीय नहीं है
जिन चीजों को हमने आवश्यक मान लिया है, वे वस्तुतः उतनी
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