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सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल
संक्षेप में प्रकाश डाला। उनमें दो प्रणालियां - पूंजीवाद और समाजवाद-क्रमशः अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ में मुख्य रूप से अपनाई गई। प्राचीन भारत में मुख्य रूप से राजतंत्र रहा और सामंतवादी या पूंजीवादी व्यवस्था चलती रही। उस राजतंत्र और सामन्तवादी व्यवस्था के अन्तर्गत ही वर्ण व्यवस्था भी चली । मध्य युग में हिंदु राज्य नहीं रहा, पर वर्ण व्यवस्था जातिप्रथा के रूप में बहुसंख्यक जन समुदाय में चलती रही, जिससे भारत में बाहर से आने वाला इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। गांधीजी ने भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का समर्थन किया, जो अर्थ व्यवस्था कुटीर उद्योगों पर टिकी थी और विकेन्द्रित थी। किंतु नेहरूजी ने उद्योगीकरण पर बल दिया और स्वतंत्रता के बाद तेजी से भारत का शहरीकरण हो गया। आज जाने अनजाने हम पश्चिम के पूंजीवाद और उपभोक्तृ जीवन शैली के पिछलग्गू बनकर रह गये हैं । उसका जो भी फल हुआ हो, एक यह फल तो हुआ ही है कि धन केन्द्र में आ गया है, जिससे धर्म तो पिछड़ ही गया, काम पुरुषार्थ भी विकृत रूप में शेष बचा है। धर्म के पिछड़ने का अर्थ है - भ्रष्टाचार । काम के विकृत रूप का अर्थ है - आत्मीयता का अभाव । भ्रष्टाचार ने कार्यालयीय व्यवस्था को लील लिया और आत्मीयता का अभाव परिवार के सुख को निगल गया । दफ्तरों में जायें तो भ्रष्टाचार के कारण भटकन शेष रह गई है। घर पर आयें तो पता चलता है कि सब रिश्ते नाते स्वार्थ के हैं। जो धर्म-स्थान शांति दे सकते थे वहां ऊपरी मुखौटे और वास्तविक चेहरे के बीच इतना बड़ा अन्तर आ गया है कि वहां जाकर प्रायः ईप्सित प्राप्त नहीं किया जा सकता। जीवन का रस ही साहित्य और कला का प्रेरणास्त्रोत होता है। जब वह रस नहीं रहा तो साहित्य एवं कला स्वयं ही सूख गये। मनुष्य के जड़ीभूत चित्त को झकझोरने के लिए दूरदर्शन पर बलात्कार और हिंसा के दृश्य शेष रह गये हैं। नवीनतम अन्तरता (इन्टरनेट) का आविष्कार अपने में कई अनर्थों का जाल छिपाये हुए हैं
यह तो स्पष्ट है कि इन सब प्रतिकूलताओं के विरुद्ध व्यक्ति को ही संघर्ष करना होगा, किंतु वर्तमान में हमारे सामने प्रश्न यह है कि क्या कोई व्यवस्थागत सुझाव भी इस परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए दिये जा सकते हैं । यह मानकर चला जा सकता है कि किसी भी व्यवस्था की सफलता उस व्यवस्था को चलाने वाले व्यक्तियों पर निर्भर करती है। किंतु यह नहीं कहा जा सकता है कि व्यवस्था में अभीष्ट परिवर्तन लाने का प्रयत्न करना ही व्यर्थ है । यदि व्यक्ति व्यवस्थाओं को प्रभावित करते हैं तो व्यवस्थायें भी व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। इसी दृष्टि से हमें यह चिंतन करना है कि पिछले
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