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सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल
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करनी चाहिए कि जिससे व्यक्ति के गलत काम करने की संभावनाएं कम से कम हो जायें। इसी मान्यता के आधार पर शोषण की बुराई के विरुद्ध साम्यवादी व्यवस्था की कल्पना की गई और उसे व्यवहार में भी लाया गया । व्यक्तिवादी दृष्टिकोण
व्यक्तिपरक चिन्तन के पक्षपातियों का कहना है कि व्यवस्था कोई भी क्यों न लाई जाये, उस व्यवस्था को चलाने वाले तो व्यक्ति ही होते हैं । यदि व्यक्ति नहीं सुधरेंगे तो वे जिस व्यवस्था को चलायेंगे उसे दूषित कर देंगे । इसलिए मूल समस्या व्यक्ति के रूपान्तरण की ही है ।
व्यक्ति और समाज की सापेक्षता
निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो उपर्युक्त दोनों ही दृष्टिकोणों में सच्चाई का अंश है। इन दोनों में परस्पर कोई विरोध भी नहीं है । व्यक्ति को सुधारा जाये-यह उद्देश्य व्यवस्था को सुधारने में कहीं बाधक नहीं है और न ही व्यवस्था को सुधारने का उद्देश्य व्यक्ति को सुधारने में बाधक है। इसका यह अर्थ होता है कि हमें दोनों पक्षों पर विचार करना चाहिए । व्यक्ति को सुधारने की प्रक्रिया साधना की प्रक्रिया है, जिसका विवरण हम आगे चलकर परमार्थ खंड में देंगे। व्यवस्था को बदलने का प्रश्न सामाजिक है उसके लिए हमें अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र जैसे समाजविज्ञान की शाखाओं पर विचार करना होगा ।
अध्यात्म और समाज
व्यक्ति के रूपान्तरण की प्रक्रिया अर्थात् साधना सार्वभौम तथा सार्वकालिक होने के कारण आगम केन्द्रित है । वह समय के साथ बदलती नहीं है, लेकिन समाज व्यवस्था समाज के साथ बदलती है इसलिए वह शाश्वत नहीं है। किंतु समाज व्यवस्था के मानदंड स्थिर करते समय हम इस बात का ध्यान तो सदा ही रख सकते हैं कि कोई भी सामाजिक व्यवस्था क्यों न हो - उसका उद्देश्य व्यक्ति का विकास है। समय के साथ-साथ कुछ मानवीय मूल्य निर्धारित हो गये हैं । उदाहरणतः यह सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया है कि जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त, भाषा, रंग अथवा लिंग जैसे तत्त्वों के कारण एक व्यक्ति और दूसरे व्यक्ति के बीच भेदभाव नहीं बरता जाना चाहिए। किसी भी मजहबी राज्य में सम्प्रदाय के आधार पर किसी सम्प्रदाय विशेष के व्यक्तियों को विशेष अधिकार मिल जाते हैं। स्पष्ट है कि ऐसी व्यवस्था
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