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महाप्रज्ञ-दर्शन स्वतंत्र सत्ता मानता है। बौद्ध अवयवी को केवल कल्पना मानता है। वह अवयव को ही सत्य मानता है।
समाज की अवधारणा इस भित्ती पर टिकी है कि अवयवी अवयव से भिन्न है। उदाहरणतः सब व्यक्ति अपना-अपना घर साफ कर दें तो नगर साफ नहीं हो जाता, क्योंकि नगर केवल घरों का समूह नहीं है। नगर में गलियां और सड़कें भी हैं, जो किसी एक व्यक्ति की नहीं है, अपितु सार्वजनिक है। केवल व्यक्ति पर बल देने का यह फल होगा कि अन्दर से घर तो सबके साफ रहेंगे, लेकिन घर के बाहर सड़क पर कूड़े के ढेर पड़े मिलेंगे, क्योंकि सड़क की सफाई करना किसी एक व्यक्ति का दायित्व नहीं है। इसलिए हमें नगरपालिका बनानी पड़ती है। नगरपालिका एक सामाजिक संस्था है, वह व्यक्तिगत नहीं है। मनःस्थिति और परिस्थिति
सामाजिकता का एक दूसरा परिप्रेक्ष्य भी है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति अपनी मनःस्थिति का निर्माण करता है, किंतु उसकी परिस्थिति का निर्माण दूसरे लोग करते हैं। एक व्यक्ति अहिंसक हो सकता है, किंतु इससे चोर, लुटेरे या हत्यारे समाप्त नहीं हो जाते । वे उस अहिंसक व्यक्ति की हत्या भी कर सकते हैं, उसे लूट भी सकते हैं। ऐसे में केवल व्यक्तिगत नैतिकता पर्याप्त सिद्ध नहीं होती। न्याय और सुरक्षा की व्यवस्था करनी पड़ती है। न्याय और सुरक्षा की व्यवस्था भी सामाजिक है, व्यक्तिगत नहीं। न्याय व्यवस्था
सामाजिकता का एक तीसरा आयाम है कि व्यवस्थाओं में ऐसा परिवर्तन कर दिया जाये कि किसी के साथ अन्याय होने की संभावना ही न रहे। राजतंत्र में राजा अत्याचार करते थे, यद्यपि यह उपदेश भी सदा दिया जाता था कि राजा को अन्याय नहीं करना चाहिए। किंतु फिर भी यदि राजा अन्याय करे ही तो जनता के पास राजद्रोह करने के अतिरिक्त राजा के अत्याचार का प्रतिकार करने का कोई उपाय नहीं था। तब हम राजतंत्र की जगह लोकतंत्र की व्यवस्था लाये, जहां हम बिना हिंसा के संवैधानिक ढंग से किसी आततायी शासक को मतदान के द्वारा बदल सकते हैं। यह परिवर्तन व्यक्ति का परिवर्तन नहीं है, व्यवस्था का परिवर्तन है। सामाजिक चिन्तन का यह बल रहा कि हमें व्यवस्थाओं को यथासंभव निर्दोष बनाना चाहिए । व्यक्ति तो सदा से ही स्वार्थी रहा है। वह ठीक काम करेगा-यह आशा न करके ऐसी व्यवस्थायें स्थापित
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