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महाप्रज्ञ-दर्शन न समाजवादी व्यवस्था। मनु ने कहा कि विषय के भोगने से इच्छा शांत नहीं होती बल्कि उसी प्रकार बढ़ती है जिस प्रकार घी से आग भड़कती है, बुझती नहीं है।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवत्मव भूय एवाभिवर्धते।। यह अंकुश न पूंजीवादी व्यवस्था लगाती है न समाजवादी। उपभोक्तृ जीवन शैली में उपभोग के निषेध का अथवा नियन्त्रित करने का प्रश्न ही नहीं होता। वहां केवल उपभोग की सामग्री जुटाने और बढ़ाने का ही एक मात्र लक्ष्य रहता
अर्थ पुरुषार्थ के संबंध में मनु ने जो आदर्श रखा वह सभी व्यवस्थाओं में प्रासंगिक बनता है। मनु का कहना है कि आजीविका के लिए लोक सामान्य की तरह अप्रामाणिकता का सहारा नहीं लेना चाहिए अपितु समझदार आदमी की तरह आजीविका के साधन ऐसे उपायों से जुटाने चाहिए जो कुटिल न हो, जिनमें शठता न हो और जो प्रामाणिक हो
न लोकवृत्तं वर्तेत वृत्तिहेतोः कथञ्चन। - अजिह्माम् शुद्धां जीवेद् ब्राह्मणजीविकाम्।। . मनु ने कहा कि किसी भी समझदार व्यक्ति को अधिक से अधिक बारह दिन उपयोग में आ सके उतनी ही सामग्री का संग्रह करना चाहिए। ज्यादा अच्छा होगा कि उपयोग में आ सके उतनी ही सामग्री का संग्रह करे, किंतु किसी भी स्थिति में बारह दिन से अधिक की सामग्री का संग्रह उसे नहीं करना चाहिए।
कुसूलधान्यको वा स्यात्कुम्भीधान्यक एव वा।
त्यहैहिको वाऽपि भवेदश्वस्तनिक एव वा॥ ऐसी सब घोषणाओं के संबंध में कार्लमार्क्स का कहना है कि यह आदर्शवादी समाजवाद है। केवल इस प्रकार के उपदेश दिये गये, उन्हें व्यवहार में कभी नहीं लाया गया। यह आरोप अंशतः ठीक भी है। वैसे भारत की अपरिग्रही वृत्ति समाजवाद के बहुत निकट आती है और वैदिक तथा श्रमण दोनों ही परम्पराओं में त्याग-तपस्या और अपरिग्रह पर बहुत बल है। आश्रम व्यवस्था
यद्यपि वर्ण व्यवस्था का मूल वैदिक परम्परा में है तथापि श्रमण परम्परा ने भी उसे बदले हए रूप में अपना लिया और उसी प्रकार संन्यास का मूल
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