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महाप्रज्ञ उवाच
४७ क्या जो आर्त और रौद्र ध्यान से हटकर धर्म ध्यान में प्रवेश करता है-वह पदार्थ से विमुख हो जाता है? ऐसा नहीं होता। क्या ध्यान करने वाला व्यक्ति गृहस्थी को नहीं निभाएगा? रोटी नहीं खाएगा? पानी नहीं पिएगा? कपड़े नहीं पहनेगा? मकान नहीं बनाएगा? परिवार का भरण-पोषण नहीं करेगा? पदार्थ को नहीं छोड़ा जा सकता, उसके प्रति रहे मिथ्या दृष्टिकोण को छोड़ा जा सकता है। हम जो दिशा-परिवर्तन ध्यान द्वारा चाहते हैं, वह हैपदार्थ-पदार्थ रहे, व्यक्ति व्यक्ति रहे। पदार्थ और व्यक्ति के बीच संबंध स्थापित हो, परस्पर घनिष्ठता न हो। हमारी सम्यग् दृष्टि जागे। हम पदार्थ को पदार्थ की ही दृष्टि से देखें, उसकी उपयोगिता को समझें, उसका उपयोग मात्र करें, किंतु उसके साथ ममत्व नहीं करें, एकता की अनुभूति न करें। पदार्थ नहीं मिटेगा। न पदार्थ को मिटाना है और न सम्पत्ति को मिटाना है। किंतु पदार्थ और संपत्ति के साथ जो हमारा अनुबंध है, उसे तोड़ना है।
मन स्वतंत्र नहीं है। शरीर मन को पैदा करता है। वचन स्वतंत्र नहीं है। शरीर वचन को पैदा करता है। हमारा स्वर तंत्र वाणी को पैदा करता है। हमारा श्वास तंत्र श्वास के क्रम को चलाता है। श्वास स्वतंत्र नहीं है। शरीर श्वास को उत्पन्न करता है। हमारा मस्तिष्क मन को पैदा करता है। इन सबको पैदा करने की पूरी की पूरी व्यवस्था हमारे शरीर में है। शरीर इन सब को पैदा करता है। यह शरीर शास्त्रीय दृष्टिकोण है। अध्यात्म का शास्त्रीय दृष्टिकोण दूसरा है। जैन आगमों के अनुसार जितने परमाणु, जितने पुद्गल बाहर से लिये जाते हैं, उनको लेने का एकमात्र माध्यम है-हमारा शरीर । वास्तव में चंचलता का एकमात्र सूत्र है-शरीर। शरीर वचन के परमाणु लेता है। वचन के परमाणुओं को भाषा के रूप में बदलता है। जब वचन के परमाणुओं का विसर्जन होता है, विस्फोट होता है, तब भाषा शब्द में सुनाई देती है। उस क्षण का नाम “वचन" है। शेष सारा काम शरीर को ही करना पड़ता है। सारी की सारी वचन की प्रक्रिया शरीर निभाता है, पूरा उत्तरदायित्व शरीर का है। इसलिए वचन को शरीर से सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता। शरीर का एक भाग है मन । मन के परमाणुओं को शरीर ग्रहण करता है। मन के परमाणुओं को चिन्तन के रूप में शरीर बदलता है। केवल मानसिक परमाणुओं का विसर्जन होता है, उस क्षण का नाम है-मन, और सारा दायित्व यह शरीर निभाता है। सारा चिन्तन का भार, यह शरीर निभाता है। वास्तव में एक ही तत्व है-शरीर । श्वास, मन, वचन-ये सारे शरीर के ही एक भाग मात्र हैं। इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि शरीर के बिना
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