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महाप्रश उवाच
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हमारा ज्ञान बहुत छोटा ज्ञान है। हम मानते हैं कि आज का युग वैज्ञानिक युग है और इसमें ज्ञान का बहुत विकास हुआ है, किंतु हमारे नाड़ी संस्थान में ज्ञान के अवतरण की जितनी क्षमता है, उसके अनुपात में कुछ अवतरित नहीं हुआ है। आज भी मनुष्य बहुत छोटे ज्ञान तक ही पहुंचा है। इन्द्रियों से परे जो अतीन्द्रिय चेतना है, वह अतीन्द्रिय चेतना जगाई जा सकती है। मनुष्य अतीन्द्रिय चेतना को जगा सकता है और इन्द्रियों की सीमाओं को लांघ कर उन सूक्ष्म शक्तियों को देख सकता है जिन्हें इन्द्रियां कभी भी नहीं देख पातीं। वह इन्द्रियां मन और बुद्धि इन सारी सीमाओं को लांघ कर शक्ति का साक्षात्कार कर सकता है।
साधना के द्वारा यदि आंख की शक्ति का विकास किया जाए, तो हम बहुत-बहुत दूरी तक स्थित पदार्थों को भी साक्षात् देख सकते हैं। इससे दूरदर्शन संभव हो सकता है। व्यवधान होने पर भी देखा जा सकता है। स्थूल को भी देखा जा सकता है और सूक्ष्म को भी देखा जा सकता है।
सुख-दुख क्या है? इसे समझना होगा। स्पंदनों के साथ मन का योग सुख है और स्पंदनों के साथ मन का योग दुख है। स्पंदनों के साथ यदि मन का योग नहीं होता है तो न सुख का अनुभव होता है और न दुख का अनुभव होता है। प्रिय स्पंदनों के साथ मन का योग होता है तो सुख और अप्रिय स्पंदनों के साथ मन का योग होता है तो दुख । सुख-दुख की जो कल्पना है वह योग के साथ होती है। मन को न जोड़ें, स्पन्दन होते रहें, कोई बात नहीं है, न सुख होगा न दुख।
वर्तमान शरीर में क्या-क्या हो रहा है, उसे देखें, कौन-सा पर्याय चल रहा है? कौन-सा पर्याय नष्ट हो रहा है? कौन-सा पर्याय उत्पन्न हो रहा है? क्या-क्या जैविक और रासायनिक परिवर्तन घटित हो रहा है? हृदय का संचालन कैसे हो रहा है? शरीर के रसायन और विद्युत प्रवाह किस प्रकार के हो रहे हैं? इन सारी घटनाओं को देखना, वर्तमान को देखना है। शरीर-प्रेक्षा का अभ्यास वर्तमान को देखने का अभ्यास है-न अतीत में जीना और न भविष्य में जीना-केवल वर्तमान में जीना।
प्रयत्न है जीवन की यात्रा को चलाने के लिए। अप्रयत्न है जीवन की सच्चाई को पाने के लिए। प्रवृत्ति है जीवन की यात्रा के लिए और निवृत्ति है जीवन के सत्य को पाने के लिए। जो लोग कर्म करते हैं, किंतु जीवन की सच्चाई को उपलब्ध नहीं कर सकते। जो व्यक्ति जीवन की सच्चाई को पाने के लिए अपनी यात्रा शुरू करता है, वह जीवन की यात्रा को चलाने के लिए
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