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भावभूमि समझ लेते हैं, वे जल्दी ही जीर्ण होने लगते हैं।
वेद ने एक आज्ञा दी है कि मनुष्य सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करे, निकम्मा होकर न बैठ जाये
___ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
हम जिस अंग से काम लेना बंद कर देते हैं, वह अंग जीर्ण होने लगता है। योगासनों से हम शरीर के उन भागों को भी सक्रिय बनाते हैं जो भाग सामान्यतः निष्क्रिय रहते हैं। आज के युग में मशीनों के कारण शरीर से बहुत से काम नहीं करने पड़ते। अतः योगासन और व्यायाम और भी अधिक आवश्यक हो गये हैं। पहले पैदल चलना, कुएं से पानी खींचना, हाथ की चक्की से आटा पीसना आदि व्यायाम स्वयं ही हो जाते थे। आज ये सब व्यायाम प्रायः नहीं हो पाते हैं अतः व्यायाम और योगासन अनिवार्य हो गये हैं। अभिमान विकास को रोकता है
एक बात और ध्यान में देने की है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जैन कहते हैं कि उत्पाद, व्यय और ध्रुवता सत् का लक्षण है। बौद्ध तो एक कदम और भी आगे हैं, वे कहते हैं कि सत् क्षणभंगुर है-प्रत्येक क्षण परिवर्तनशील है, उसमें स्थिरता है ही नहीं। परिवर्तन दोनों ही दिशाओं में हो सकता है हम विकास की ओर भी बढ़ सकते हैं, हास की ओर भी जा सकते हैं। यदि हम विकास की ओर गति नहीं करेंगे, तो प्रकृति हमे हास की ओर धकेल देगी। जो अपने को पूर्ण मानने का भ्रम पाल लेते हैं, वे विकास की दिशा में बढ़ने का पुरुषार्थ छोड़ बैठते हैं। यहीं उनके पतन का प्रारम्भ बिन्दु बन जाता है। अभिमान कहें, गौरव कहें, प्रतिष्ठा कहें-ये सब मनुष्य को दुःख की स्थिति में धकेल देते हैं
अभिमानं सुरापानं गौरवं घोररौरवं प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा
त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत्। मनु ने मनुष्य को सम्मान से सावधान करते हुए सम्मान को मीठा जहर बताया है
सम्मानादुद्विजेन्नित्यं विषादिव ब्राह्मणः । _इसके आगे मनु कहते हैं कि अपमान का अमृत के समान स्वागत करना चाहिए
अपमानस्य चाकाक्षेदमृतस्येव सर्वदा
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