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महाप्रज्ञ - दर्शन
एक दूसरी स्थिति यह है कि जब कोई व्यक्ति हमारी रुचि के अनुकूल व्यवहार करता है तो वह हमें अपना मित्र प्रतीत होता है, यदि वही व्यक्ति हमारे प्रतिकूल व्यवहार करे तो हमें शत्रु प्रतीत होने लगेगा। यह मैत्री सशर्त है; हममें से अधिकतर ऐसी ही मैत्री कर पाते हैं। यह मैत्री वस्तुतः मैत्री नहीं, राग है। वास्तविक मैत्री तो उस विधायक दृष्टि का परिणाम है जहां हम किसी भी परिस्थिति की अपने अनुकूल व्याख्या करना सीख लेते हैं ।
अपने शुद्ध रूप की झलक
अनुकूलता-प्रतिकूलता पर विचार करें कि वस्तुतः हमारे अनुकूल या प्रतिकूल क्या है। जहां शुभ-अशुभ है वहां तक अनुकूलता प्रतिकूलता का द्वन्द्व भी है। शुद्ध भाव में न कुछ अनुकूल है न प्रतिकूल । इस शुद्ध भाव की एक झलक हमें अपनी दैनन्दिनचर्या में भी कभी-कभी मिलती रहती है। कल्पना करें कि हम प्रातः शय्या से अभी उठे ही हैं। सुषुप्ति में हमारे संस्कार भी सुषुप्त हो गए थे। उस समय न हमें कुछ अनुकूल प्रतीत हो रहा था, न कुछ प्रतिकूल । बस हमें केवल अपने अस्तित्व का बोध था । हमारी आंखें खुल गयी हैं। कुछ क्षणों के लिए हमारे सुषुप्त संस्कार अभी जाग नहीं पाए हैं। उस क्षण में जाग जाने पर भी हम अनुकूलता - प्रतिकूलता का बोध नहीं कर पाते हैं। न उस समय हमें यह बोध है कि हमने कल तक क्या किया था, न हमें यह बोध है कि हमें आज आगे क्या करना है। हम उस समय केवल वर्तमान को देख रहे होते हैं, अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना अभी हमें नहीं घेर पाती है । यह स्थिति केवल कुछ क्षण ही रह पाती है और फिर तत्काल सारे संस्कार उद्बुद्ध हो जाते हैं। संस्कार उद्बुद्ध होने से पूर्व के कुछ क्षण में हम सब एक जैसे होते हैं- न कोई गरीब है, न कोई अमीर, न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई सुखी है, न कोई दुःखी । उस समय हम सब अपने शुद्ध द्रष्टा भाव में एक समान हैं। किंतु जैसे ही हमारे संस्कार हमें घेरते हैं, हम सब भिन्न-भिन्न हो जाते हैं । हममें से किसी को याद आता है कि आज उसका जन्मदिन है तो वह प्रफुल्लित हो उठता है, उसे ख्याल आता है कि आज उसके मित्र उसके घर बधाई देने आने वाले हैं। हममें से किसी को ख्याल आता है कि आज उसके मुकदमे का फैसला सुनाया जाने वाला है तो वह तत्काल तनावपूर्ण मनःस्थिति में आ जाता है। वह अपने इष्ट देव का स्मरण करने लगता है कि उसे मुकदमे में सफलता मिले। कहने का अभिप्राय यह है कि हम सबके मन तरह-तरह के प्रपंचों से भर जाते हैं। इस प्रपंचों से भरे स्वरूप को ही हम अपना असली स्वरूप मान बैठे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि हमारा वास्तविक स्वरूप वह था जो संस्कारों के उद्बुद्ध होने से पहले था और
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