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भावभूमि
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निष्प्रपञ्च था। यहां यह स्पष्टीकरण आवश्यक है कि जिसे हम निष्प्रपञ्च कह रहे हैं वह भी वस्तुतः निष्प्रपञ्च है नहीं क्योंकि संस्कारों का अस्तित्व अभी हममें बना हुआ है भले ही पूर्ण रूप से अभिव्यक्त न हुआ हो किंतु सुप्त स्थिति में संस्कार हैं अवश्य । अतः वे हमारे वास्तविक स्वरूप को तो प्रतीति में नहीं आने देते । फिर भी उनके जाग्रत होने तक के कुछ क्षणों में हमें अपने निष्प्रपञ्च शुद्ध स्वरूप की एक फीकी सी झलक मिल सकती है।
अपना सत्य स्वयं खोजें
प्रायः प्रपञ्चों से भरा हमारा मन ही हमारा मार्गदर्शन करता रहता है। ये प्रपंच ही हमें अनुकूलता - प्रतिकूलता का बोध कराते हैं। इन्हीं प्रपञ्चों के कारण हम राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाते । ये प्रपंच अनादि काल से संस्कारों के रूप में हमारे साथ लगे हैं। राग-द्वेष की पृष्ठभूमि से हमारे समस्त विचार उद्भूत होते हैं। हम इस अंधविश्वास में जी रहे हैं कि हम विचारों के माध्यम से सत्य को जान लेंगे। एक ही तथ्य अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग नजर आता है । यह विचार-भेद की करामात है । विचार के द्वारा सत्य को जानने का प्रयत्न जिन्होंने किया उन्होंने सत्य को सदा भिन्न-भिन्न रूप में ही जाना । अतः सत्य विवाद का कारण बन गया । वेद में एक शब्द आया "मम सत्यम्" अर्थात् "मेरा सत्य"। इस शब्द का टीकाकारों ने अर्थ किया- युद्ध | "मेरा सत्य" यह युद्ध कैसे बन गया? टीकाकार ठीक कह रहे हैं। संघर्ष का मूल है सत्य के साथ ममत्व का संबंध जोड़ देना । यदि सत्य मेरा है तो दूसरा उसे क्यों स्वीकार करने लगा ? यदि हम दूसरे का सत्य स्वीकार कर भी लें तो वह सत्य मृत होगा । सत्य एक जीवित घटना है, उसे मेरे अन्दर से उपजना चाहिए, सत्य दूसरे से उधार नहीं लिया जा सकता । अपना सत्य स्वयं खोजेंअप्पणा सच्चमेसेज्जा। पर दूसरे के सत्य से टकराये नहीं, सबके प्रति मैत्री भाव रखें - मित्तिं भूयेसु कप्पए ।
तक्का तत्थ न विज्जइ
अपना सत्य खोजें, पर विचार के द्वारा नहीं, निर्विचारता के द्वारा विचार उत्पन्न होते हैं और विलीन हो जाते हैं। हम उस उद्गम तक जायें जहाँ से विचार उत्पन्न हो रहे हैं और जहाँ विलीन हो रहे हैं। विचार जहाँ से उत्पन्न होते हैं, वहाँ विचार नहीं है, निर्विचारता है। विचार जहाँ लीन हो जाते हैं वहाँ भी निर्विचारता ही है । शब्द जहाँ से आ रहे हैं, वहाँ शब्द नहीं है, मौन है। हम शब्दों पर न जायें, उस नीरवता तक जायें जहाँ से शब्द आ रहे हैं। परम तत्त्व वह नहीं है जहाँ पर विचार जाता है, परम तत्त्व वह है जहाँ से विचार आता है ।
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