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कर्मप्रक्रति
अतः यह ग्रन्थ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका ही रचा हुआ होना चाहिए । परन्तु मुख्तार साहब का कहना है कि "मुझे वह उन्हीं (गो० कर्मकाण्डके रचयिता) आचार्य नेमिचन्द्रकी कृति मालम नहीं होती; क्योंकि उन्होंने यदि गोम्मटसार-कर्मकाण्डके बाद उसके प्रथम अधिकारको विस्तार देनेकी दृष्टिसे उसकी रचना की होती, तो वह कृति और भी अधिक सुव्यवस्थित होती।""और यदि कर्मकाण्डसे पहले उन्हीं आचार्य महोदयने कर्मप्रकृतिकी रचना की होती, तो उन्हें अपनी उन पूर्वनिर्मित २८ गाथाओंके स्थानपर सूत्रोंको ( जो कि कर्मकाण्डकी ताडपत्रीय प्रतियोंमें पाये जाते हैं ) नवनिर्माण करके रखनेकी जरूरत न होती - खासकर उस हालतमें जब कि उनका कर्मकाण्ड भी पद्यात्मक था। और इसलिए मेरी रायमें यह 'कर्मप्रकृति' या तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक' अथवा विद्वानकी कृति है जिनके साथ नाम-साम्यादिके कारण 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' का पद बादको कहीं-कहीं जुड़ गया है - सब प्रतियोंमें वह नहीं पाया जाता। और या किसी दूसरे विद्वान्ने उसका संकलन कर उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामांकित किया है और ऐसा करने में उसकी दो दृष्टि हो सकती है - एक तो ग्रन्थ प्रचारकी और दूसरी नेमिचन्द्रके श्रेय तथा उपकार-स्मरणको स्थिर रखने की। क्योंकि इस ग्रन्थका अधिकांश शरीर आद्यन्त भागोंसहित उन्हींके गोम्मटसारपर-से बना है।" इत्यादि (पुरातन-जैनवाक्य-सूची पृ० ८८)
___ गो० कर्मकाण्डसे पहलेकी रचना न मानने में श्री मुख्तार साहबने जो युक्ति दी है, वह विचार करने पर कुछ अधिक महत्त्व नहीं रखती। इसका कारण यह है कि आ० नेमिचन्द्र ने अपने जीवनके प्रारम्भकालमें जन-साधारणको कर्मप्रकृतियोंका बोध करानेके निमित्त इस सरल सुबोध ग्रन्थको रचना की हो और पीछे कर्मविषयके विशिष्ट जिज्ञासुओं एवं अभ्यासियोंके लिए गो० कर्मकाण्डकी रचना की हो, यह अधिक सम्भव जंचता है। फिर जबतक सबल प्रमाणोंसे उसका अन्य आचार्यके द्वारा रचा जाना सिद्ध नहीं हो जाता तबतक उसे नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीकी कृति मानने में कोई आपत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। यह तर्क कि कर्मप्रकृतिकी अनेक गाथाएँ भावसंग्रहादि अन्य ग्रन्थोंसे संग्रहीत हैं, अतः वह प्रसिद्ध नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीरचित नहीं माना जा सकता, कुछ ठीक नहीं है । कारण कि गो० जीवकाण्ड में अपनेसे पूर्ववर्ती प्राचीन पंचसंग्रहके प्रथम प्रकरण जीवसमासकी १०० से भी ऊपरकी गाथाएं ज्योंकी-त्यों संगृहीत हैं। इसी प्रकार गो० कर्मकाण्डमें भी उसी प्राचीन पंचसंग्रहके तीसरे, चौथे, पांचवें प्रकरणकी अनेक गाथाएं संग्रहीत दृष्टिगोचर होती हैं। प्राकृत साहित्य खासकर कर्म साहित्यके अनुशीलन करनेपर यह पता चलता है कि आचार्य परम्परासे आनेवाली पुरातन गाथाओंको परवर्ती ग्रन्थकारोंने अपने ग्रन्थों में बिना किसी उल्लेख या संसूचनके स्थान दिया है।
गोम्मटसारके रचयिता आचार्य नेमिचन्द्रका समय विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दी है। इसका सबसे पुष्ट एवं सबल प्रमाण यह है कि उनके शिष्य चामुण्डरायने अपना चामुण्डराय पुराण शक सं० ९०० (वि० सं० १.३५) में रचकर समाप्त किया है। और यतः गोम्मटसारकी रचना उनके लिए हुई है, अतः उसके रचयिता भी उनके ही समकालिक सुनिश्चित सिद्ध है।
कर्मप्रकृतिका परिमाण कर्मप्रकृतिको मूलपाठवाली प्रतियोंमें से अधिकांशमें १६१ गाथाएं मिलती हैं, किन्तु ताडपत्रीय प्रतिमें वा कुछ उत्तरदेशीय प्रतियोंमें १६० ही गाथाएं मिलती हैं, 'सिय अत्थि णत्थि उभयं' वाली सोलहवीं गाथा नहीं पायी जाती। इसके विषयमें श्रीमुख्तार साहब लिखते हैं कि "वह ग्रन्थ सन्दर्भको दृष्टि से उसका संगत तथा आवश्यक अंग मालूम नहीं होती, क्योंकि १५वीं गाथामें जीवके दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्व गुणोंका निर्देश किया गया है, बीचमें स्यात् अस्ति-नास्ति आदि सप्तनयोंका स्वरूप निर्देशके बिना ही नामोल्लेखमात्र करके यह कहना कि 'द्रव्य आदेशवशसे इन सप्न भंगरूप होता है' कोई संगत अर्थ नहीं रखता। जान पड़ता है १५वीं गाथामें सप्त भंगों द्वारा श्रद्धानकी जो बात कही गयी है, उसे लेकर किसीने 'सत्तभंगीहिं' पदके
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