Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ प्रस्तावना इससे ज्ञात होता है कि पीछे यह प्रति भ० श्रीविद्यानन्दिके अधिकारमें रही है। स प्रति-यह प्रति मेरे साढूमल भण्डारकी है। इसका आकार १.४४॥ इंच है। पत्र-संख्या ७६ है। प्रतिपत्र पंक्ति-संख्या १० और प्रतिपंक्ति अक्षर-संख्या ३५-३६ है। कागज देशी पुष्ट, अक्षर सुन्दर सुवाच्य एवं स्याही गहरी काली तथा लाल है। सारी प्रतिमें उत्थानिका वाक्य लाल स्याहीसे ही लिखे हुए हैं। इस प्रतिमें श्री पं० हेमराजजीकृत भाषा टोका दी हुई है। प्रति वि० सं० १७५३ के वैशाख सुदि ५ को चन्द्रापुरीके आदिनाथ चैत्यालयमें लिखकर समाप्त हुई है। इससे ज्ञात होता है कि भाषा टीकाकारके द्वारा टोका रचे जानेके तत्काल पश्चात् ही यह प्रति लिखी गयी है। " प्रतिके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है, वह इस प्रकार है : " संवत् १७५३ वर्षे वैशाखसुदि ५ रवौ चन्द्रापुरीमध्ये श्रीआदिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे नंद्याम्नाये कुन्दकुन्दाचार्यान्वये तदनुक्रमेण भट्टारक श्रीधर्मकीर्ति तत्पट्टे भट्टारक श्रीपद्मकीर्ति तत्पट्टे भट्टारक श्री ५ सकलकीर्तिजू देव तत्पट्टे धरणधीरगच्छपति नायकमट्टारक श्री श्री श्री श्री श्री श्री श्री सुरेन्द्रकीर्तिजू देव आचार्यश्री ५ कनककीर्तिजू देव तच्छिष्याचार्य श्रीभूषण ब्रह्म सुमतिसागर पण्डित चिंतामणि पं मनिराम पं घनस्याम पं मानसाहि इदं पुस्तकं लिखितं पंडित चिन्तामणि स्वपठनार्थ ज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ । श्रीरस्तु । उक्त प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इसे पं० चिन्तामणिने अपने पढ़ने और ज्ञानावरणीकर्मके क्षय करने के लिए लिखा है। ग्रन्थ-नाम-निर्णय प्रस्तुत ग्रन्थके संस्कृत टीकाकार श्रीज्ञानभूषण वा सुमतिकीत्तिने आदिके मंगल-श्लोकोंमें तथा अन्तिम प्रशस्तिके पद्योंमें स्पष्ट शब्दोंके द्वारा ग्रन्थका नाम कर्मकाण्ड घोषित किया है, परन्तु वह यथार्थता इसके विपरीत है। इसी संस्करण में मुद्रित संस्कृत टीका युक्त पं० हेमराजकृत भाषाटीकाके अन्त में 'कर्मप्रकृतिविधान' नाम पाया जाता है, पर यह भी ठीक नहीं है। हाँ, दूसरी संस्कृत टीकावाली प्रतिके अन्तमें इसका नाम स्पष्ट शब्दों में 'कर्मप्रकृति' ही दिया गया है। वह पुष्पिका इस प्रकार है : इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिविरचित कर्मप्रकृतिग्रन्थः समाप्तः ।" इसके अतिरिक्त ग्रन्थकी जितनी भी मूल प्रतियां मुझे प्राप्त हुई हैं, उनमें तथा मूडबिद्रोको ताड़पत्रीय प्रतिमें ग्रन्थका नाम 'कर्मप्रकृति' ही मिलता है । इसलिए मैंने इसका नाम 'कर्मप्रकृति' ही रखा है। कर्मप्रकृति-परिचय कर्मों के मल और उत्तर भेदोंके स्वरूपका सांगोपांग वर्णन करनेवाला यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। गाथाओंकी समता आदिको देखकर कुछ वर्ष पूर्व पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इसे गो० कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारके रूपमें सिद्ध करनेका प्रयत्न 'अनेकान्त' में प्रकाशित अपने लेखों-द्वारा किया था। किन्तु तभी श्री डॉ० हीरालालजी जैन और श्री आचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने लेखोंके द्वारा उनके भ्रमका निरसन करके यह सिद्ध कर दिया था कि यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। तत्पश्चात श्री मख्तार साहबने परातन-जनवाक्यसूचीकी प्रस्तावनामें विस्तारपूर्वक ऊहापोहके बाद यही निर्णय किया है कि कर्मप्रकृति एक स्वतन्त्र कृति है। ( पुरातन-वाक्यसूची पृ० ८२ पैरा ३) इसके रचयिताके बारेमें विद्वानोंमें मत-भेद है। कुछ विद्वानोंका मत है कि यतः कर्मप्रकृतिमें गो. कर्मकाण्डकी अधिकांश गाथाएँ पायी जाती हैं, प्रारम्भका मंगलाचरण आदि भी गो० कर्मकाण्डवाला है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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