Book Title: Karmprakruti
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में जिन-जिन प्रतियोंका उपयोग हुआ है, उनका परिचय इस प्रकार है : अप्रति - इसकी प्राप्ति मुझे श्री त्यागी मुन्नालालजी चन्देरीके संग्रहसे हुई। इसका आकार .९॥४४॥ इंच है। पत्र-संख्या २३ है। प्रतिपत्र पंक्ति-संख्या ६ और प्रतिपंक्ति अक्षर-संख्या २८-३० है। मुख्यरूपसे इसमें मूल गाथाएँ ही लिखी गयी हैं। गाथाओंके ऊपर और हासियेमें टिप्पणके रूपमें एक लघुटीका लिखी हुई है, जो अनेक स्थलोंपर दूसरी टीकाओंसे कुछ विशेषता रखती है और इसी कारण उसे मूल वा अनुवादके अनन्तर प्रकाशित किया गया है। प्रतिके अन्तमें जो प्रशस्ति दी हुई है उससे स्पष्ट है कि यह वि० सं० १८१९ के भाद्रपद कृष्णा १० को लिखी गयी है। इसे पं० सिंभूरामने बेधूं नामक नगरके श्री पार्श्वनाथ चैत्यालयमें बैठकर अपने अध्ययनके लिए लिखा है। लेखकने अपनी गुरु-परम्पराका उल्लेख करते हए तात्कालिक राजा रावजी श्रीमेघसिंहजीके प्रवर्तमान राज्यका भी निर्देश किया है। मूल पाठका जहाँतक सम्बन्ध है, प्रति शुद्ध है। किन्तु पंक्तियोंके ऊपर और हासियेमें जो टीका दी गयी है वह अनेक स्थलोंपर अशुद्ध है और अनेक स्थलोंपर पत्रोंके चिपक जानेसे स्पष्ट पढ़ने में नहीं आ सकी है। इस टोकावाली अन्य प्रतिको अन्यत्र कहींसे प्राप्ति न हो सकने के कारण जैसा चाहिए संशोधन नहीं हो सका है। फिर भी अन्य टीकाओंके आधारसे उसे शोधने का प्रयत्न किया गया है। जहाँ कोई पाठ ठीक संशोधित नहीं किया जा सका, वहाँ (?) प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया गया है । प्रतिके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है, वह इस प्रकार है : "संवत्सरे रन्धेन्दुवसुकेवलयुते १८१९ भाद्रपदमासे कृष्णपक्षे दशम्यां तिथौ शनिवासरे वेधूनामनगरे श्रीपार्श्वनाथचैत्यालये रावजीश्रीमेघसिंहजीराज्यप्रवर्तमाने मट्टारकेन्द्र-मट्टारकजीश्रीक्षेमेन्द्रकीर्तिजी आचार्यवर्यश्रीधर्मकीर्तिजी तच्छिष्य प्राचार्यवर्यजी श्रीमेरुकीर्तिजी पण्डितमनराम चैनराम लाल चन्द रतनचन्द गुमानी सिम सेवाराउ एतेषां मध्ये ५० मनराम तच्छिष्य सिमरामेण इदं ग्रन्थं स्वपठनार्थ लिपिकृतं ॥" प्रतिके हासियेपर ग्रन्थका नाम यद्यपि कर्मकाण्ड लिखा है, तथापि ग्रन्थकी अन्तिम गाथाके अन्तमें "इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्ति-विरचित कर्मप्रकृतिग्रन्थः समाप्त:" लिखा है, जिससे मलग्रन्धका नाम कर्मप्रकृति सिद्ध है। सबसे ऊपर के पत्रपर 'कर्मकाण्ड पुस्तक भट्टारकजीको' लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि लेखकके पश्चात् यह प्रति किसी भट्टारकके स्वामित्वमें रही है । ज प्रति-यह प्रति आमेर-भण्डार जयपुरकी है, जिसका नं० १६४ है। इसका आकार ११४५ इंच है। पत्र-संख्या ५४ लिखी है, पर वस्तुतः ५५ है; क्योंकि दो पत्रोंपर ४२-४२ अंक लिपिकारकी भूलसे लिखे गये हैं। प्रतिपत्र पंक्ति-संख्या ९ और प्रतिपंक्ति अक्षर-संख्या ३६-३७ है। प्रतिके अन्तमें लेखकने प्रति-लेखन-काल नहीं दिया है, किन्तु कागज, स्याही और अक्षर-बनावट आदिको देखते हुए कमसे कम इसे दो-सौ वर्ष प्राचीन अवश्य होना चाहिए। कागज देशो, मोटा और पुष्ट है, तथा प्रति अच्छी . दशामें है। केवल एक पत्र किनारेपर कुछ जला-सा है। प्रतिमें एकारकी मात्रा अधिकतर पडिमात्रामें है। यथा दोष-दाष, शिलाभेद-शिलाभद आदि । प्रतिके अक्षर सुन्दर एवं सुवाच्य हैं, तथापि वह अशुद्ध है। लेखकने 'श' के स्थानपर 'स' और कहीं-कहीं 'स' के स्थानपर 'श' लिखा है। कई स्थलोंपर पाठ छुटे हुए हैं, और कई स्थलोंपर दोबारा भी लिखे गये हैं । यथा, २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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