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प्रत्येक गुणस्थान-वर्ती जीवों की बध.योग्यता को दिखायाः है । इसी प्रकार उदयाधिकार में, उनकी उदय-सम्बन्धिनी योग्यता को, उसीरणाधिकार में उदारणा-सम्बन्धिनी योग्यता को और सत्ताधिकार में सत्ता-सम्बन्धिनी योग्यता को दि. खाया है। उक्त ४ अधिकारों को घटना, जिस वस्तु पर की गई है. उस वस्तु-गुणस्थान-क्रम का नाम-निर्देश भी ग्रन्थ के थारम्भ में ही कर दिया गया है । अतएव, इस ग्रन्थ का विषय, पांच भागों में विभाजित हो गया है। सबसे पहले, गुण: स्थान:क्रम का निर्देश भोर पोछ क्रमशः पूवात चार अधिकार ।
'कर्मस्तव' नाम रखने का अभिप्राय । "आध्यात्मिक विद्वानों को रोष्ट, सभी प्रवृत्तियों में श्रात्मा की ओर रहती है। वे; करें कुछ भी पर उस समयः अपने. सामने एक ऐसा प्रादर्श उपस्थित किया होते हैं कि जिससे" उन के आध्यात्मिक महत्वाभिलाष पर जगत् के आकर्षण का, कुछ भी असर नहीं होता। उन लोगों का अटल विश्वास होता है कि 'ठीक ठोक लक्षित दिशा की ओर जो जहाज चलता है वह, वधुत कर विघ्न बाधाओं का शिकार. नहीं होता। यह विश्वास, कर्मग्रन्थ के रचयिता प्राचार्य में भी था। इल से उन्होंने ग्रन्थ रचना-विषयक प्रवृत्ति के समय भी महान् श्रादर्श को अपनी नज़र के सामने रखना चाहा । ग्रन्थकार
की दृष्टि में आदर्श थे भगवान महावीर । भगवान महावीर के . जिस कर्मक्षयरूप असाधारण गुण पर ग्रन्धकार मुग्ध हुए थे। उस गुण को उन्होंने अपनी कृति द्वारा दर्साना चाहा । इस लिए प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना उन्होंने अपने आदर्श भगवान् महावीर की स्तुति के, बहाने से, की है । इस प्राथ. में मुरः