Book Title: Karmastava
Author(s): Atmanandji Maharaj Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ من प्रस्तावना | ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य | 'कर्मविपाक' नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में कर्म की मूल तथा उत्तर प्रकृतियों का वर्णन किया गया है । उस में बन्ध-योग्य, उदय- उदीरणा-योग्य और सत्तायोग्य प्रकृतियों की जुद्दी जुद्दी संख्या भी दिखलाई गई है । अब उन प्रकृतियों के बन्ध की उदय उदीरणा की और सत्ताकी योग्यता को दिखाने की, आवश्यकता है । सो इसी श्रावश्यकता को पूरा करने के उद्देश्य से इस दूसरे कर्मग्रन्थ की रचना हुई है । विषय- वर्णन शैली | संसारी जीव गिनती में अनन्त हैं । इसलिए उनमें से एक एक व्यक्ति का निर्देश करके उन संघ की बन्धादि सम्ब न्धिनी योग्यता को दिखाना असंभव है । इसके अतिरिक्त

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 151