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(२) एक व्यक्ति में बन्धादि-सम्बन्धिनी योग्यता भी सदा एकसी नहीं रहती; क्योकि परिणाम व विचार के बदलते रहने के कारण बन्धादि-विषयक योग्यता भी प्रत्तिसमय बदला करती है। अतएव प्रात्मदर्शी शास्त्रकारों ने देहधारी जीवों के १४ वर्ग किये हैं। यह वर्गीकरण, उनकी प्राभ्यन्तर शुद्धिकी उत्क्रान्ति-अपंक्रान्ति के नाधार पर किया गया है । इसी वर्गीकरण को शास्त्रीय परिभाषा में 'गुणस्थान-क्रम' कहते हैं । गुणस्थान का यह क्रम, ऐसा है कि जिसके १४ विभागों में सभी देहधारी जीवों का समावेश हो जाता है जिससे कि अनन्त देहधारिओं की पन्धादि-सम्बन्धिनी योग्यता को १४ विभागों के द्वारा बतलाना सहज हो. जाता है और एक जीव-व्यक्ति की योग्यता-जो प्रतिसमय बदला करती है-उसका भी प्रदर्शन किसी न किसी विभाग के द्वारा किया जा सकता है । संसारी जीवों की प्रान्तरिक शुद्धि के तरतस भावकी पूरी वैज्ञानिक जाँच करके गुणस्थानक्रम की घटना की गई है । इससे यह बतलाना या समझना. सहज हो गया है कि अमुक प्रकार की आन्तरिक अशुद्धि या शुद्धिवाला जीव, इतनी ही प्रकृतियों के बन्ध का,उदय-उदीरणा का और सत्ता का अधिकारी हो सकता है। इस कर्मः अन्थ में उक्त गुणस्थान क्रम के आधार से ही जीवों की बन्धादि-सम्बन्धिनी योग्यता को बतलाया है । यही इस ग्रन्थ की विषय-वर्णन-शैली है।
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विषय-विभाग। इस ग्रन्थ के विषय के मुख्य चार विभाग है (३) बन्धाधिकार, (२) उदयाधिकार, (३) उदीरणाधिकार और (४), सत्ताधिकार । वन्ध्राधिकार में गुणस्थान:क्रम को लेकर