Book Title: Jivan ki Khushhali ka Raj
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 39
________________ सच्चाई तो यह है कि हमारी एक-एक चिंता हमारी ही चिता की एकएक लकड़ी होती है और उस लकड़ी को हम स्वयं टुकड़ा-टुकड़ा कर इकठ्ठा करते हैं। जैसे कई लकड़ियाँ जलाओ और उसमें कुछ सूखी और गीली लकड़ियाँ हो तो सूखी लकड़ियाँ तो आराम से जल जाती है जबकि गीली लकड़ियाँ जल तो नहीं पाती पर धुआँ ही उगलती है। हमारी चिंताओं की स्थिति भी ऐसी ही है, कुछ चिंताएँ तो सूखी लकड़ियों की तरह होती हैं जो आज है और कल जलकर खत्म हो जाएंगी लेकिन कुछ चिंताएँ गीली लकड़ियों की तरह होती हैं जो हमारे भीतर ही भीतर धुआँ उठाती है और हमें मानसिक संताप देती हैं। जो चिंताएँ गीली लकड़ियों की तरह होती हैं वे हमें परेशान ही करती हैं समाधान का सूत्र कभी नहीं बन पातीं। जिस समस्या का कोई हल नज़र न आए और पुनः पुन: वही सोच होती रहे तो वही हमारे लिए चिंता का कारण बन जाती है और गीली लकड़ी की तरह हमें तिल-तिल कर जलाती है। सच्चाई तो यह है कि जीवन भर चिंताओं के साथ रहते-रहते हमें चिंताएं पालने का शौक-सा हो जाता है। पर सावधान रहें! चिंताएँ रोग हैं, अच्छा होगा इससे बचने के लिए हम कुछ आत्मिक, आध्यात्मिक उपाय कर सकते हैं। अगर लगे कि चिंता हमें ज्यादा ही सता रही है तो अपने अंतरमन को अन्य किसी निमित्त से जोड़ने की कोशिश कीजिए। विधाता के विधान पर विश्वास करते हुए जो कुछ हो जाए उसे सहजता से स्वीकार कीजिए। चाहे तो किसी संत के प्रवचनों से सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त कर सकते हैं। चिंता के निमित्तों से अपने मन को हटाएं ओर किसी श्रेष्ठ कार्य में मन को नियोजित करके चिंता की छुट्टी कर दें। 38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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