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रखते हैं ? अनावश्यक कार्यों में, दोस्तों के साथ निरर्थक बातों में, ताश-जुएँ में, अपना समय बर्बाद करते रहे हैं। और तो और, पूछने पर कि भई क्या कर रहे हो तो उत्तर मिलता है टाइम-पास कर रहे हैं।
क्या जिंदगी केवल 'पास' करने के लिए है ? क्या हमारी ज़िदंगी इतनी भारभूत बन गई है कि हमें जिंदगी को पास करना पड़ रहा है। जीवन गतिशील हो, कृत्रिम नहीं वास्तविक हो।अपनी जिंदगी में देखें कि हमारी मुस्कान कृत्रिम है या वास्तविक है ? जीवन जो इतनी सुख-सुविधाओं से भरा है यह कृत्रिम है या इसमें सहज आनंद भी है ? व्यक्ति के जीवन का सुख-शांति-आनंद सब कुछ कृत्रिम हो गया है। भीतर कुटिलता से भरा हुआ आदमी बाहर से कोमल नज़र आ रहा है। बाहर से मुस्कुराने वाला भीतर से कैंची चलाने की कोशिश कर रहा है। बाहर से अपनत्व दर्शाने वाला भीतर से गिराने और काटने की कोशिश कर रहा है। मेरे देखे, व्यक्ति की ज़िंदगी इतनी दोहरी हो गई है कि बाहर का चेहरा कुछ और है, भीतर का चेहरा कुछ और। बाहर धर्म, तो भीतर अधर्म क्यों?
आपने दो मुंहे सांप के बारे में सुना होगा। दो मुंहे इंसान सांपों से ज्यादा जहरीले होते हैं। सांप का काटा तो शायद बच भी जाए, पर दो मुंहे इंसान के काटे को तो भगवान भी नहीं बचा सकते। हम देखें कि कहीं हमारी जिंदगी दोहरी तो नहीं होती जा रही है। हम बाहर से धार्मिक हैं, लेकिन भीतर से अनैतिक हैं। बाहर से तो प्रसन्न नज़र आ रहे हैं, लेकिन भीतर से कुटिल हैं। हम बाहर से तो सामाजिक एकता की बात कर रहे हैं, लेकिन भीतर से समाज में घात कर रहे हैं। बाहर से तो हम अहिंसा और शांति की बातें करते हैं, लेकिन भीतर से अशांति और क्रूरता को जन्म दे रहे हो। ईमानदारी से अपने मन को टटोलें कि बाहर से अच्छे नज़र आने वाले हम लोग भीतर से कैसे हैं?
हम लोग किसी के घर ठहरे हुए थे। दो मंज़िल का मक़ान था, छत्त थी, बरामदा भी था। बरामदे में उस व्यक्ति ने विभिन्न प्रकार के फलों के गमले लगा रखे थे। सांझ को जब मैं बरामदे में घूम रहा था तो पाया कि फूल भी नकली थे और गमले भी कृत्रिम थे। उन्होंने कई तरह के नकली फूल सजा रखे थे। सुबह जब मकान मालिक उठा तो उसने उन नकली फूलों पर पानी
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