Book Title: Jivan ki Khushhali ka Raj
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 100
________________ नीर - सा निर्मल मन 1 जीवन की निर्मलता का दूसरा मंत्र है मन को निर्मल रखें। हम देख लें कि हमारे मन में क्या भरा है । नगरपालिका की कचरा पेटी में शायद उतनी गंदगी नहीं होगी जितनी गंदगी मनुष्य के मन-मस्तिष्क में भरी होती है। मनुष्य का निर्मल मन किसी मंदिर के समान होता है जहाँ व्यक्ति अपने आराध्य को स्थापित कर सकता है । मन की निर्मलता में ही व्यक्ति की शांति और जीवन भक्ति है। जिसका मन निर्मल व शांत है, जिसके मन की दशा पवित्र है वही साधना के योग्य है। हम ध्यान-साधना करने के लिए मन को एकाग्र करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि मन को एकाग्र करने से पूर्व मन को निर्मल करने की जरूरत है। अगर अपवित्र मन के साथ आपने साधना कर ली और उसका परिणाम भी प्राप्त हो गया, तो यह परिणाम एक दिन आपको रावण और कंस बनाकर छोड़ेगा । कोई देव प्रसन्न होकर आए और कहे कि मैं तुम्हें अमृत देता हूं, संयोग की बात तुमने प्याला आगे कर दिया और वह प्याला अगर पहले ही जहर से सना हुआ है तो उसमें डाला हुआ अमृत भी जहर हो जाएगा। पवित्र मन किसी तीर्थ की तरह है । निर्मल मन में ही प्रभु का बसेरा होता है । मन मंदिर है, इसमें जाल न जमने दें। मन के आईने में आप सत्संग में आ रहे हैं तो आपकी पहली शुरुआत हो निर्मल सोच से और दूसरे चरण में हो मन की निर्मलता । अपने मन पर विवेक का अंकुश लगाने की कोशिश करें। अपने मन को एकाग्र करने के बजाय पहले निर्मल करें। मन को ऐसा बना लें कि वह मंदिर बन जाए, तीर्थ बन जाए, परमात्मा को विराजित करने के लिए आसन बन जाए । प्रायः लोग कहते हैं कि पापी पेट का सवाल है, पर पाप पेट में नहीं, मन में होता है। पेट को दो रोटी चाहिए, जो चाहिए आदमी के मन को चाहिए । मन के दर्पण में वही दिखाई देता है जो आप होते हैं । मुझे याद है - एक आदिवासी किसान खेत में हल चला रहा था कि खेत में एक चमकीली चीज निकली। वह एक आईना था। किसान ने उसे उठाया, अपनी आँखों के सामने लाया तो वह आश्चर्यचकित हो गया, क्योंकि उस चमकीली चीज में उसका खुद का चेहरा नज़र आ रहा था। उसे याद आया लोग Jain Education International 99 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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