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अधिक आशा से उपजे निराशा
बुढ़ापे में अपने भाग्य का रोना न रोएँ । जो प्रकृति से मिल रहा है उसे प्रेम से स्वीकार करें। बच्चों से अधिक आशाएँ न रखें। लोग प्राय: कहते हैं कि बेटा तो बुढ़ापे का सहारा है, पर मैं कहता हूँ ज्यादा आशा न पालें । जीवनभर अगर आशाएँ रखी हैं तो बुढ़ापे में निराश होना पड़ सकता है। अगर आशा ही न रखोगे तो निराश भी नहीं होना पड़ेगा। देखते तो हो कि पड़ौसी का बेटा अपने पिता की सेवा नहीं कर रहा, तुम भी अपने पिता की सेवा नहीं कर रहे तो अपने बेटे से यह आशा क्यों कर रहे हो । ये आशाएँ जब टूटती हैं तो बुढ़ापे में सिवाय दुःख के कुछ हासिल नहीं होता । तुम निःस्वार्थ भाव से बेटों के लिए जितना कर सको, कर दो, पर वापसी की अपेक्षा न रखो।
अनावश्यक हठ भी न करें। घर में रहकर यह न कहें कि जो आपने कह दिया वह क्यों नहीं हुआ। कई बार बूढ़े लोग घर में रहकर झगड़ पड़ते हैं या दुःखी हो जाते हैं कि मैंने कहा था और घर में लोगों ने ऐसा किया या ऐसा क्यों नहीं किया। वाक्युद्ध शुरू हो जाता है और घर में अशांति छा जाती है। घर के लोगों को अगर तुम्हारी सलाह की ज़रूरत है, तो वे ज़रूर पूछेंगे और अगर तुम बिन माँगे दिन भर अपनी सलाह देते रहोगे तो उस सलाह की कोई क़ीमत न होगी ।
घर के लोग अगर आपके लिए कुछ काम करें तो उन्हें साधुवाद दो, कहो - मेरा बेटा बहुत अच्छा है, मेरा बहुत ध्यान रखता है। भले ही न रखता हो - पर शायद तुम्हारे इस प्रकार कहने से ही ध्यान रखना शुरू कर दे। एक बात और ध्यान रखें कि घर में कभी व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग न करें। कई बार बूढ़े लोग व्यंग्य में ऐसी बातें कह जाते हैं जो घर के लोगों को चुभने लगती है। आक्रोश में ग़लत कठोर शब्दों में कहने की बजाय उसी बात को सरल शब्दों में कहने से वह बात अधिक प्रभावी होती है। आप अशक्त हो चुके हैं, आपसे काम नहीं बन रहा है तो व्यंग्यपूर्वक बोलने की बजाय मधुरता से बोलें और अपना कार्य करवा लें
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सीखें सत्तर पार भी
एक बात और, सीखने की कोई उम्र नहीं होती है । शरीर से भले ही बूढ़े हो जाएं, पर मन को कभी अशक्त न मानें। सत्तर वर्ष के हो गए हो तब भी
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