Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 24
________________ प्रस्तावना पोतानी चिंताथी राजकुमारी उंघती नथी एम जाणी जिनदत्त एक वार्ता कही पूर्व कर्मथी मळतां सुख-दुःखमां हर्ष-विषाद न करवा श्रीमतीने कहे छे. 'आवा प्रतिभाशाळी पुरुषथी मारुं दुःख दूर थशे' एवी श्रद्धाथी श्रीमतीने निद्रा आवे छे. श्रीमतीने निद्राधीन जाणी जिनदत्त धीमेथी उठीने एक मोटु लाकडं लावी पोताने सुवाना पलंगमा मूकी, तेना उपर कपडं ढांकी, दीवामां पूरतुं तेल पूरी, खड्ग लईने थांमला पाछळ संताईने उभो रहे छे. थोडी वार पछी राजकन्याना मोढामां बे नानी जीभो जुवे छे. 'आ शुं हशे ?' एम विचार करतां राजकन्याना मुखमाथी काळो सर्प नीकळे छे. 'आनाथी भय छे' एम जिनदत्त चिंतवे छे. एटलामां ते सर्प श्रीमतीनी पथारीमांथी जिनदत्तना पलंगमां जईने मस्तकना स्थळे रहेला ते काष्ठने डंख मारे छे. कुमार पण सावधान थई सर्पना त्यां ज टुकडा करी बाजुमा पडेला करंडीयामां नांखे छे. पेट नानुं थवाथी संपूर्ण निद्रा लई प्रभाते राजद्वारनां वाजिंत्रोना नादथी जागेली श्रीमतीए जिनदत्तने तेना पलंगमां बेठेलो जोई, आश्चर्यमुग्ध बनी, सविनय पूछतां जिनदत्ते सपनी हकीकत कही. प्रतिदिन प्रभाते मृतक लेवा आवनार माणसो द्वारा जिनदत्तनुं कुशळ सांभळी राजा त्यां आवी, श्रीमतीना मुखे रात्रीनी घटना जाणी, जिनदत्तने धन्यवाद आपी, औषधादिना उपचारथी श्रीमतीने स्वस्थ करी, हावभावथी श्रीमतीनो अभिप्राय जाणी धामधूमथी जिनदत्त अने श्रीमतीनुं लग्न करे छे. जिनदत्त प्रसंगे प्रसंगे श्रीमतीने चित्रपटमां जैनमंदिर-साधु-साध्वी विगेरे आलेखी जैन धर्मनां तत्त्वो समजावी जैनदर्शनानुयायिनी बनावे छे. अन्यदा पोताना व्यापारने लगतुं कार्य पूर्ण थतां राजानी रजा लई, श्रीमतीने साथे लई, जिनदत्त तथा दरिद्र सार्थवाहे खदेश जवा वहाण भरी प्रयाण कयु.. उपार्जित द्रव्यमां अने विशेषे श्रीमतीमां आसक्त थवाथी दरिद्र सार्थवाहे नोकरोने संकेत करी 'जिनदत्त जीवतो हशे त्यां सुधी श्रीमती मने नहिं इच्छे' एम विचारी रात्रीना समयमां अवाज थाय एवी रीते दरियामां कई वस्तु फेंकी. ज्यारे कहेवा छतां कोई पण माणस पडेली वस्तु लेवा माटे पाणीमां नथी उतरतो त्यारे जिनदत्त दोरडं बांधीने सागरमां उतरे छे. सार्थवाह ते दोरडुं कपावी नांखी वहाण हंकारी जाय छे. सार्थवाह विलाप करती श्रीमतीने पोतानी पत्नी थवा माटे अनेक प्रकारे समजावीने कहे छे-'जिनदत्त मारो पुत्र नथी, वाणीथी ज पुत्र तरीके स्वीकार्यो हतो.' सार्थवाहने घणो उपदेश आपवा छतां निष्फळता मळतां, श्रीमतीए 'पोताने आजीवन वैधव्य नथी' एवा नैमित्तिकना वचननं स्मरण थतां फरी जिनदत्तने मळवानी संभावनाथी सामनीतिथी शीयळरक्षा करवा माटे, छ मासनी मुदत मागतां सार्थवाह सहर्ष कबूल करे छे. छ मास पूर्ण थतां किनारो पण आवे छे. अवधिपूर्ण थयो जाणी श्रीमती पोते रजस्खला छे' एम जणावे छे. कांठो आवतां सार्थवाह वहाणमांथी उतरी ते नगरना राजाने मळवा जाय छे. १ प्रथम कथामां आ स्थळे विजयकुमारनी कथा छे (जुओ पत्र १९ थी २२). अहिं संक्षेपमा कहेवार्नु होवाथी ते कथा लखी नथी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122