Book Title: Jindattakhyana Dwaya Author(s): Sumtisuri, Amrutlal Bhojak Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 56
________________ जिनदत्ताख्यानम् । जं त्तीहिं न जुञ्ज, अंगीकरिडं न तीरए जं च । कम्मवसेणं तं पि हु, जीवेहिँ सहिजए दुक्खं ॥ २४० ॥ जेणं चिय संसारो, एरिसदुक्खेहि दारुणो निचं । तेणं चिय कउन्ना, चरंति जिणभासियं धम्मं ॥ २४९ ॥ जारिसयं तुह दुक्खं, सुंदरि ! मज्झं पि तारिसं चेव । ता मज्झ तुमं भइणी, इह चिय निव्वया चिट्ठ ॥ २४२ ॥ [२४०-२४७ ] कहिओ अप्पण वृत्तो । पुच्छियाई साहिन्नाणाई, सवाणि मिलति । नवरं विमलमई भणइ - 'मम भत्ता कणयगोरो आसि ।' सिरिमई भणइ - 'पियंगुसामो' ति । तओ 'बहुरयणा वसुंधर'त्ति भणिऊण दो वि जणीओ जिणधम्मपरायणाओ अच्छिउं पवत्ताओ ति ॥ छ ॥ जिनदत्तस्य अङ्गारवत्या सह परिणयनम् । इओ य वरतछेयाणंतरं कनीसाहारनियसरीरो खणमुब्बुडणे काऊण जलमज्ये चैव तरमाणो चिंतिउं पवत्तो जिणयतो- केण पुण होऊ छिण्णा एसा रजु ? न तावासंग ( तायासंग १ ) ओ को वि कम्मयरो अत्थि । अनं च - तोयम्मि विजमाणे, एयं को कुणइ निग्विणं कम्मं । जीवंतयस्स फणिणो को णु मर्णि मुट्ठिणा हणइ ॥ २४३ ॥ ता सयमेव कहं चि तुट्टा होही । अण्णं च - सुयणो सरलसहावो, ताओ दुक्खेण धारिही पाणे । काही मज्झ विओए, न याणिमो सिरिमई किं पि १ ॥ २४४ ॥ अहवा किमेtणा पडियाराविसएण ९ पुवकयकम्मपरिणामपरवसेहि संसारजीवेहिं सोढवाई चैव एयारिसाई [एवं ] विचिंते, न उण सेट्ठिविसए संकं धरेइ । अवि य - नियहियय निम्मलाई, सुयणा पेच्छति सवहिययाई । पिसुणाउलं पिवणं, अप्पणयं तेण मन्नंति ॥ २४५ ॥ aa पलोइओ जली | केरिसो ? - जलहत्थिमत्थयाहयहेसिरजलतुरयतसियमयरोहो । गुरुमयरग हियघणसिप्पिसंखगद्दन्भसद्दालो ।। २४६ ॥ गुरुमच्छपुच्छ उच्छलियतुंग कल्लोल भीसणायारो | संसारो व अच्चंतदुत्तरो दिट्टिमोहेण ॥ २४७ ॥ २७ १ मुक्तनिःस्वाधार निजशरीरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122